Saturday, August 18, 2012

अजीब मनःस्थिति में...कभी किसी उदास रात में दो कविताएँ लिखीं थीं...


पहली कविता...


कल रात


जो कुछ कहा तुमने
क्यूँ कहने को मुझे चुना तुमने
वही कह रहे थे तुम
जो मरकर भी सुनना चाहेगा कोई

लेकिन
इस तरह कहा तुमने
कि सुना ही न गया

अपना तो कहा लेकिन
माना कहाँ अपना

जो माना होता
तो कहो तो भला
क्यूँकर कहते
जो कहा तुमने ?

अपना मानते तो भी
कहते वही
जो कहकर एक ही पल में
कर दिया पराया तुमने
****************

 ये दूसरी कविता.....



कभी होता है यूँ भी
कि अपने ही दिल का
पता नहीं होता ख़ुद को

ये जानकर भी कि
तुमने दुखाया है दिल
तुमसे नाराज़ नहीं मैं

चोट खाकर, सबकुछ सह कर भी
तुमपे गुस्सा नहीं आया
क्यूँ आख़िर ?

तुम तो कोई नही हो न मेरे
सिर्फ एक दोस्त...जस्ट ए फ्रेंड
तो क्यूँ ये सोचकर
हैरान है दिल कि

तुम उदास होगे
परेशान होगे
ख़ुद से नाराज़ होगे

ये दिल भी ना ,अजीब शै है
धड़कने से इसके ज़िंदा हैं हम
धड़कनों से इसकी जीना मुहाल है


Friday, August 17, 2012

एक सवाल ऐसा भी -----------------------

आज फिर भीगा है मन
स्नेह से तरबतर हैं
सजल नयन
सोचकर हैरान हूँ
कैसा था वो पल निर्मल
आँखों में वो तड़प
हो रहा तन मन विकल
मीलों लम्बी थी गहराती
रात आधी
अन्धकार था ज़्यादा घना या
ख़ामोशी  इसकी
दूर आसमाँ पर था चमकता
एक बुज़ुर्ग  सितारा
पिता के बारहा ज़िक्र पर
पनीली आँखों से तड़प कर
झिझकते संकोच से लरज़ते
स्वर में पूछा  था  ये सवाल
'' क्या हम , अपना रिश्ता बदल सकते हैं  ???''

Tuesday, August 14, 2012

मासूम ख़यालों ने अपनी आगोश में ,जब कुछ ख़्वाब समेटे ,
कुछ यूँ ही बेइरादा ख़्वाहिशें , आँखों में मुस्कान संजो गईं ,
चहरे की नरमी सुर्ख होकर, नई साँसों की खुशबू में खो गई ,
कुछ नए रंग बिखरे , कुछ नए सुर सजे ,
ज़िन्दगी की नई तस्वीर जैसे ख़्वाबों के रंग से सजी ,
ख़्वाहिशें तरन्नुम में नई ग़ज़ल गुनगुनाने लगीं ,
लेकिन इस बेख़ुदी के न तो ख़्वाब पहचाने से थे ,न ही ख़्वाहिशें ,
चेहरे का नूर , आँखों की मुस्कान , नया रंग और तरन्नुम भी, दुनियाँ से जुदा थे ,
वो क्या था जो बिखर गया....
किसी फ़रिश्ते की दुआओं का शाहकार था शायद...
या थी वो किसी मासूम दिल की, मासूम फ़रियाद...

Sunday, August 12, 2012

 अनदेखी...अनजानी सी
वो ख़ुशबू बहुत जानी पहचानी सी
किसी बियाबान में चलते
महके रातरानी सी

सागर सा अथाह और
पहाड़ी झरने सी उच्‍छृंखल खिलखिलाहट का
अप्रतिम मेल !
विस्मय भी होता है...मान भी
और इस पर उसकी सहजता
अद्भुत !
मुग्ध करती मुझे वो दूर सितारों से आती
आवाज़ या कि दिव्य पुकार
बुलाती है बार-बार
अपने पास और पास

अनजाना ये बंधन दो रूहों का
खींचता है मुझे अनायास
जैसे सृष्टि में कोई सितारा खींचता है
अपने ही पड़ोसी किसी तारे को
उसी तिलस्‍मी तारे की तरह

खिंचती ही चली जाती हूँ मैं
उस अदृश्य डोर से बंधी
बेबस....अवश !