Friday, November 30, 2012

निरक्षर

किताबों की तरह
मुझे भी पढ़ते-पढ़ते
ख़ुद इक किताब हो गए हो
अल्फाज़ से भरपूर...मगर ख़ामोश
जिसे मुसलसल पढ़ने के इंतज़ार में
निरक्षर हो गई मैं...

Monday, November 26, 2012

उपनयन



यूँ तो उपनयन एक संस्कार है हिन्दू धर्म के सोलह संस्कारों में से। लेकिन यहाँ जिसका ज़िक्र है वो आर्ट ऑफ लीविंग के बेसिक कोर्स की एक प्रकिया है। हमारे शहर में भी अक्सर अलग-अलग धार्मिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न आयोजन किये जाते हैं।हमारे मित्रों के दो गुट हैं इस मुद्दे पर।एक तो घोर विरोधी हैं इसके। उनका कहना है की धर्म के ठेकेदार हैं सब और ये तो आध्यात्मिकता का व्यवसायीकरण है। और दूसरे ग्रुप

का कहना है कि सारे ऐसे नहीं हैं और बहुत कुछ सीखने को मिलता है ऐसे शिविरों में। और कुछ नहीं तो कम से कम बचपन से जो अच्छी बातें सिखाई गयी थीं, उनका रिवीज़न ही हो जाता है जो आज की भागमभाग भरी ज़िन्दगी में बहुत ज़रूरी है, खुद को रीचार्ज करने के लिए। अच्छी-अच्छी बाते खुद को और औरों को याद दिलाते रहना चाहिए। ख़ैर ...

अपने मित्रों की ज़िद पर मैंने आर्ट ऑफ लीविंग के बेसिक कोर्स का वो शिविर अटेंड किया। दोस्तों के साथ ग्रुप में कोई भी काम साथ मिलकर करने का अपना मज़ा है। सात दिवसीय इस शिविर में काफी चीज़ें बताई गयीं। मुझे वहां जाते हुए, चैतन्य होकर हर चीज़ महसूस करते हुए बहुत अच्छा लग रहा था।मैंने खुद को पूरी तरह योग गुरु पर छोड़ दिया था जो शिविर करवा रहे थे।जो कुछ कहा जाता मैं करती जाती ।और ऑबज़र्व करना मेरा स्वभाव है सो देखा भी करती सभी को। पूरे शिविर में दो बच्चियों ने ध्यान खींच रखा था मेरा। ब-मुश्किल चौदह-पन्द्रह वर्ष उम्र रही होगी उनकी। और माता-पिता के कहने पर शिविर में आईं थीं। हर प्रक्रिया में खेलने लगती थीं । ज़ाहिर है कई बार ऊबती भी थीं।बीच-बीच में योग गुरु की डांट पड़ती उन्हें।कभी -कभी योग गुरु की आवाज़ सुनाई देती- पूजा आखें बंद करो। दोनों बच्चियों में से पूजा ज्यादा चंचल थी। इक पल भी शांत नहीं बैठ पाती थी।

एक दिन शिविर में उपनयन की प्रक्रिया करवाई गई। इसमें जितने लोग थे उन्हें दो ग्रुप में बाँट कर आमने सामने मुंह करके बिठा दिया गया।जैसे खाने की पंगत में बैठते हैं, सिर्फ बीच में गैप नहीं रखा गया था। दोनों बच्चियां एक दूसरे के आमने-सामने बैठ गयीं, ठीक मेरे बगल में। सबसे आँखें बंद करने आग्रह किया गया।बांसुरी पर राग शिवरंजनी मद्धम मद्धम बज रहा था। और योग गुरु की कॉमेंट्री चल रही थी। उनकी आवाज़ आई- धीमे-धीमे आँखें खोलने का आग्रह किया गया। योग गुरु बोल रहे थे- जो शक्स आपके सामने बैठा है,उसका हाथ अपने हाथों में लीजिये और अपलक उसकी आँखों में देखते हुए महसूस कीजिये कि इस कायनात में यही वो शख्स है जिससे आप सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं,यही आपका ईश्वर है।आप प्रेम में डूबे हुए हैं। पूजा मेरी सामने वाली पंक्ति में मेरे पार्टनर के बगल में बैठी थी। वो ईमानदार कोशिश करती अपनी पार्टनर की आँखों में अपलक निहारते हुए प्रेम महसूस करने की लेकिन हंस पड़ती।आस-पास के लोग डिस्टर्ब हो रहे थे।मैं पूरी शिद्दत से प्रक्रिया पूरी करना चाहती थी, लेकिन बेचारी पूजा और उसकी हंसी...योग गुरु की आवाज़ आई कोई हंसेगा नहीं ,लेकिन लगता जैसे किसी ने गुदगुदी कर दी है पूजा को। हंसी रोकने में दोनों बच्चियां पूरी तरह नाकामयाब रहीं थी। मैंने सहज एक नज़र देखा पूजा को वो सहम कर एक बार फिर न हंसने की कोशिश करने लगी।और तभी योग गुरु का आदेश हुआ की एक पंक्ति के लोग ज्यूँ के त्यूं अपनी जगह पर बैठे रहें और सामने वाली पंक्ति के लोग अपनी जगह से थोड़ा सा अपनी दाहिनी ओर खिसकें।आज्ञा का पालन किया गया।अब पार्टनर बदल गए थे । अब मैं और पूजा आमने-सामने थे।अब वो थोड़ी सी शांत थी।योग गुरु ने वही प्रक्रिया दोहराने का आदेश दिया। हमने एक दूसरे का हाथ थाम रखा था।उसके छोटे-छोटे मुलायम हाथ मेरे हाथों में थे।योग गुरु की आवाज़ आई -एक दूसरे की आँखों में आँखें डालिए ...अपलक एक दूसरे को निहारते हुए महसूस कीजिये कि इस दुनिया में यही वो इंसान है जिसके प्यार में आप पूरी तरह डूबे हुए हैं।मैंने अपलक अपनी निगाहें पूजा की आँखों पर टिका दीं। वो बेहद असहज महसूस कर रही थी, हंसी रोकने की कोशिश में उसका चेहरा लाल हुआ जा रहा था, उसने अपना सर झुका दिया और नीचे ज़मीन पर देखने लगी। साफ़ दिखाई दे रहा था की वो अपनी हंसी छुपाने की कोशिश कर रही थी,लेकिन हंसी रोक नही पा रही थी।
फिर मेरे मन में ख़याल आया कि बेचारी बच्ची को इस परेशानी से बाहर निकाला जाए, सो मैंने अपनी आँखें मूँद लीं और राग शिवरंजनी में बांसुरी पर बजती धुन पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।यूँ भी संगीत से बहुत गहरा लगाव है मुझे।और बांसुरी सुनते हुए ईश्वर कृपा को, जीवन में हुई हर अच्छी बात को याद करने लगी। मन आभार के भाव से भर गया था।जीवन में घटित हर अच्छी बात के लिए ईश्वर का धन्यवाद करते हुए मन द्रवित हो आया था और दो बूँद आंसू आँखों के कोरों से निकल कर मेरी गालों पर ढुलक आए थे।मेरी तन्द्रा तब टूटी जब मैंने पाया कि पूजा ने मुझे अपने गले से लगाकर बहुत ज़ोरों से भींच लिया है।और हल्के- हल्के मेरी पीठ पर थपकियाँ दे रही है। उसकी आँखें भीगी हुई थीं, उसने जुबां से तो कुछ नहीं कहा लेकिन मेरा चेहरा उसने अपने दोनों हथेलियों में थामा हुआ था और अपलक मुझे देख रही थी मानो कह रही हो यूँ ना रोइए प्लीज़ ...सब ठीक हो जाएगा। मैं अवाक उसे अपलक देखती रह गई थी। पता नहीं नियमतः उस प्रक्रिया में क्या होना चाहिए था लेकिन मैंने महसूस किया कि हमारा उपनयन तो हो गया था।शायद सच्चा ''उपनयन''।

Thursday, November 22, 2012

उफ्फफ्फ्फ़ !!!! ये समझाइश...

ये जो बात बात पर समझाइश दिया करते हो ना तुम
कि ज़िन्दगी में कुछ रचनात्मक और सकारात्मक
छोटे-छोटे काम करते रहने चाहिए
सही बताएं तो तुम्हें चाहने के सिवा
कुछ अच्छा ही नहीं लगता हमें
प्यार करना क्या इतनी ख़राब बात है ????
तो फिर क्यूँ हर वक़्त
खुद को महान और हमें सामान्य
बताने में लगे रहते हो
किसी को यूँ काम्प्लेक्स देना

कौन सी अच्छी बात है भला ??

( अब देखो ना... ये पढ़ने वालों को भी तुम ही महान नज़र आओगे...)

Wednesday, November 21, 2012

लघु-कथा ''अनन्या '' को कविता की शक्ल में लिखने की एक कोशिश.... मुझे चाँद चाहिए


उसे  चांद चाहिये
चांद तारों की जगमग दुनिया चाहिये
मुस्कुराती हुई और हरी-भरी धरती को देख
खामोश खिलखिलाती हुई दुनिया में बैठी है वह
जहां चांदनी की ओढ़नी में
रोशनी के घूंघट से उसे दिखती हैं
धरती पर कुछ छवियां पास बुलाती हुईं
लेकिन वह नहीं चाहती वहां जाना
चाहती है वहीं से कोई आये उसके रौशन जहां में
लेकिन कहां मुमकिन होता है हदों को तोड़कर
दो दुनियाओं का इस तरह मिलना
बस इसीलिये राह तकती उसकी आंखों में
हरदम झिलमिलाते हैं
सितारों की तरह जगमगाते हुए क़तरे अश्कों के...

* लिखी जा रही कहानी का अंश...

अनिर्विनय !
हम्म ....नाम तो बहुत अच्छा है
…तो फिर पूरा नाम…! प्रियंवदा ने पूछा।
अनिर्विनय ही नाम है ठकुराइन। अवि ने हँसते हुए कहा
अरे ठीक ठीक बताओ ना ....सरनेम क्या है तुम्हारा? प्रियंवदा ने पूछा।
क्या कीजियेगा जानकर ठकुराइन..? चलिए हम शूद्र हैं ...अब कहिये दोस्ती रखनी है या ..??? कह कर मुस्कुराया अवि
उफ्फ... ओह ! तुम भी न अवि ... सर में दर्द हो जाएगा यूं तो पूछते-पूछते।... चलो कॉफ़ी पीने चलें।
शूद

्र के साथ कॉफ़ी पीजिएगा ठकुराइन ??? देखिएगा कहीं धर्म भ्रष्ट न हो जाए आपका।... कहकर जोर से ठहाका लगाया अवि ने।
धर्म तो भ्रष्ट होगा ही अवि ....लेकिन हमारा नहीं ...तुम्हारा ... समझे?
हम ठहरे नॉन वेजिटेरियन ...और तुम तो लहसुन प्याज भी नहीं खाते ...है ना??
प्रियंवदा मुस्कुरा रही थी
उफ्फ ... उफ्फ्फ्फ़ ...ये आपने क्या कह दिया ठकुराइन ??
वही जो तुमने सुना ...लेकिन वो नहीं, जो समझा तुमने... इतना उफ्फ करने की ज़रुरत नहीं ....हम तो सिर्फ जूठी कॉफ़ी पिलाने की बात कर रहे थे।... प्रियंवदा ने कहा।
जी ठकुराइन जी ...हम भी तो यही समझ कर उफ्फ कर रहे थे।... आपने कुछ और सोच लिया क्या?? ... कहकर छेड़ा अवि ने
प्रियंवदा झेंप गई ....अवि ठहाके लगा रहा था।

एक लघु-कथा पोस्ट की थी हमने '' अनन्या '' उसे एक लोक कथा में तब्दील कर दिया...एक नज़र देखें प्लीज़.... लघु लोक कथा



बहुत पुरानी कहानी है, दूर किसी देश में एक राजकुमारी रहती थी। करुणा और प्रेम से भरा बेहद खूबसूरत हृदय था जिसका , उसे लगता सौन्दर्य में ईश्वर का वास है। उसे सिर्फ प्रेम से ही प्रेम था।राजकुमारी यूँ तो धरती पर रहती थी लेकिन हक़ीक़त की पथरीली दुनिया के सापेक्ष उसकी अपनी कल्प

ना की एक बेहद खूबसूरत ,रंगीन सपनीली दुनिया थी। चाँद तारों की दुनिया चाँद तारों के सपने...जहाँ सब कुछ बहुत सुन्दर बहुत अच्छा था।उस पथरीली दुनिया से उसे बहुत डर लगता।इस दुनिया का बड़ा खौफ था उसके मन में।
हक़ीक़त की दुनियां से टकराकर जब भी उसके ख्वाब तार तार हो जाया करते, वो बदहवास तेज़ क़दमों से भागती अपनी सपनीली ख्वाबों ख्यालों की दुनिया में शामिल हो जाती। और सुकून की सांस लेती।बेशक वो हक़ीक़त की दुनिया से डरती लेकिन वो दुनिया हमेशा से ही उसके लिए कौतूहल का विषय भी थी। वो देखती कभी-कभी कुछ लोग उस पथरीली दुनिया से उसे देखकर मुस्कुराते हैं , हाथ हिलाते हैं । उसका दिल करता कि वो लोग कभी मेहमान बनकर उसकी चाँद तारों की दुनिया में आएं।
आज हक़ीक़त की दुनिया से एक राजकुमार उसकी सपनीली दुनिया में दाखिल हुआ। राजकुमारी बेहद खुश हुई और बड़ी आत्मीयता से उसे अपनी दुनिया में शामिल कर लिया। राजकुमारी के पाँव ज़मीन पर नहीं थे,वो बेहद खुश थी।धीरे-धीरे राजकुमारी राजकुमार के प्रेम में डूबती चली गयी।
और फिर कुछ ही समय बाद यथार्थ और कल्पना की टकराहट से राजकुमारी की तंद्रा टूटी।राजकुमारी चाहती कि राजकुमार उसे यूँ गले लगा ले कि फिर किसी जनम में वो अलग न हो सकें, यूँ ही गले से लगे हुए ज़िन्दगी ख़त्म हो जाए। इस नज़दीकी से राजकुमार का दम घुटने लगता। वो खुली हवा में सांस लेना चाहता। अब इस मुश्किल का कोई हल नहीं था, क्यूँकर होता भला ...होता ही नहीं है। राजकुमारी ने पाया कि दोनों के बीच घटती दूरियों ने चीज़ों को खूबसूरत नहीं रहने दिया है, क्यूंकि हर चीज़ एक निश्चित दूरी से अच्छी लगती है और मुश्किल ये है कि ये दूरी, ये हदें सबकी अलग-अलग हैं। इन हदों की टकराहट में चीज़ों का सौन्दर्य खोने लगता है। यहाँ भी यही हुआ , प्रेम की तीव्रता ,उसके आवेग के अंतर ने दोनों को तोड़ के रख दिया। और इससे भी बड़ी मुश्किल ये कि इस सपनीली दुनियां में, किसी की आमद जितनी आसान है वापसी उतनी ही मुश्किल ...बल्कि असंभव। आते हुए पांवों के निशाँ पकड़कर कोई वापस जा नहीं सकता।
इधर सुनते हैं कि ...इक राह जो थमी थी ....आज फिर दिखती है राजकुमारी की आँखों में ...झिलमिला आए मोती के पीछे।

Monday, November 19, 2012

शरद चंद्र...

सुनो चंद्रमा शरद के
यूँ न मुस्कुराया करो तुम कि
तुम्हारी मुस्कान में बरसती हैं
जो किरणें शीतल
मुझ तक आकर वही किरणें
तीर हो जाती हैं और
मैं लेट जाती हूं अंतरिक्ष में
जैसे शरशैया पर बिरहन...

नीले पंखों वाली चिडि़या...

अरी सुनो !
कितनी तो सुहानी सुबह है ये
जैसे पहली बार उतरी है धरती पर आज
हमेशा की तरह
तुम्हारी आँखों में ये जो हैरानी सी है
बहुत जानी पहचानी पुरानी सी है

ये जो बदला हुआ सा मंज़र दिखाई देता है
दरअसल वो किसी के होने से है
किसी के होने को यूँ हैरानी से न देखो
तुमसा मासूम भी कोई दुनियाँ में है
अपनी परवाज़ उसे दे दो
ओ! नीले पंखों वाली चिड़िया
कि नीले सपनो की दुनियाँ आसमान छू सके

लघु-कथा / अनन्या



अनन्या आज रात चाँद देख रही थी। उसकी आँखों में चाँद तारों के सापेक्ष एक दुनिया मुस्कुराती है, जो हरी भरी धरती को देख कुछ सहम सी जाती  है।
दो चार लोग उसी हरी भरी दुनियां से हाथ हिलाते हैं। अनन्या ने चाहा कि वो लोग उसके इन चाँद तारों की दुनिया में यूँ ही कभी मेहमान बनकर आएं।
किसी को भी शामिल कर लेना अपने जहाँ में कितना आसान होता है, लेकिन  जाने क्यूँ घटी हुई दूरियां सौंदर्य मिटाने पे आमादा हो जाती हैं।
आते हुए पांवों के निशाँ पकड़कर कोई गुज़र क्यों नहीं जाता ?
एक राह जो थमी थी आज फिर दिखती है अनन्या  की आँखों में, उसी चाँद को देखते हुए आँखों में झिलमिला आए मोती के पीछे।

जिबरिश...



महज़ कविता लिखने के लिए
रोया नहीं जा सकता
लेकिन रो लेने के बाद
ज़रूर एक फ़लक...जो धुंधला सा था
अब साफ़ नज़र आता है....स्लेट सा
जिस पर तुम्हारी बूँदें रचती हैं शब्द
वो शब्द जो तुम्हारी रुलाई में फूट पड़ते हैं जिबरिश
जिनकी ध्वनि नहीं रचती कोई चित्र

लेकिन रचती है एक जहान
मेरे प्रेम का

( * जिबरिश = अगड़म बगड़म बोले गए शब्द / ध्यान की एक विधि )

अर्धसत्य...

तुम झूठ नहीं बोलते
तुमने ही तो कहा
अच्छा ये तो बताओ
अर्धसत्य बोलते हो या
कि वो भी नहीं ??
अगर नहीं तो भूल ही जाओ प्रेम
तुमसे तो हो ही चुका
अब इस जन्म में
प्रेम...

चौबीस में से 72 घंटे तुम्हारे साथ...



अब तुम्हारे साथ और ज्यादा
रहने की चाहत का
हल मिल गया है मुझे
... तुम्हारे साथ में रहने या कि
तुम्हें सोचते हुए
एक पल का मतलब है एक पूरा दिन
और तुम्हारे बिना जीने का मतलब
एक युग जी लेना
इस तरह तुम्हारे होने और न होने के
फर्क को मिटा दिया है मैंने...

Tuesday, November 6, 2012

अहाssssssss टुकुस - टुकुस :)))))))) हाँ!:) वाकई अच्छा लगता है जब मिले कुछ अनेस्पेक्टेड....:)))

आज सुबह की एक छोटी सी घटना जो दिल को छू गयी.....सोचा आपके साथ भी शेयर कर लें....

जो काम हम करते हैं आकाशवाणी में, उसके ड्यूटी आवर्स बड़े ऑड हैं। शिफ्ट ड्यूटी हुआ करती है। कभी सुबह पांच बजे जाना होता है, कभी रात ग्यारह साढ़े ग्यारह लौटना होता है। और अक्सर आते जाते समय कॉलोनी के गार्ड को ज़हमत देनी होती है गेट खोलने के लिए। यूँ तो ये उसका काम ही है लेकिन बहुत बुरा लगता है, जब कई बार सुबह वो नींद

में आँखें मलते हुए लगभग कांपते हुए गेट खोलता है। ख़ास तौर से ठण्ड और बारिश के मौसम में। इसलिए अक्सर सुबह हम गाड़ी से उतर कर ख़ुद ही गेट खोल लिया करते हैं। जब कभी बहुत देर हो रही होती है तो मजबूरन हॉर्न बजाना पड़ता है। एक दिन बहुत हड़बड़ी में थे, दूर ही से हॉर्न भी बजाया लेकिन वो शायद गहरी नींद में था, जाग नही पाया। हमने देखा मिसेस साहू मॉर्निंग वॉक पर निकली हुई हैं, और गेट के क़रीब ही हैं। उन्होंने मुड़ कर देखा भी था। यूँ नहीं था मन में हमारे कि वो हमारे लिए गेट खोलें, और उन्होंने धीरे से एक गेट ज़रा सा खोला और बाहर निकल गयीं और जाते हुए गेट वापस बंद भी कर दिया। हम गाड़ी से उतरे, हमने भी गेट खोला और ज़रा सी स्पीड बढ़ाई कार की और दौड़ते हांफते पहुंचे ऑफिस। आज भी ऐसा ही एक दिन था जब सुबह सुबह देर हो गयी थी। हम कॉलोनी के गेट तक पहुंचे ही थे कि देखा गाड़ी की लाईट देखकर गेट के बाहर एक छोटी बच्ची ने दौड़कर गेट खोलना शुरू किया। गेट थोड़ा भारी है बच्ची बड़ी ज़ोरों से हंसती हुई उसे पूरी ताक़त से उसे धकेल रही थी। तब तक हम भी उतर गए गाड़ी से और हमने दूसरा गेट खोला। बच्ची बहुत खुश थी मुस्कुराकर हमें देख रही थी। और तभी बाहर नज़र गयी बहुत से बच्चे थे, और पीछे कुछ बड़े लोग भी दिखे। ये शायद आसपास के गाँव से आये लोगों का झुण्ड था संभवतः राज्योत्सव देखने आए होंगे।
हमने बच्ची के सर पर प्यार से हाथ फेरा और हमारे मुंह से निकला थैंक यू सो मच...हमारा थैंक्स कहना था और सारे बच्चे एक सुर में चिल्लाए '' यू आर वेलकम मैम '', बच्चों की खिलखिलाती आवाज़ सारी फिज़ा में तैर गयी। ज़रूर स्कूल में टीचर ने सिखाया होगा। ग्रामीण बच्चों का पढ़ना , कुछ सीखकर उसे समय पर इस्तेमाल करना और इन सब से बढ़कर वो '' प्योर इनोसेंस '' जो उनके चेहरों पे होता है उसकी तो बात ही अलग है। हमारे चेहरे पर भी मुस्कान तैर गयी थी। दिल से दुआ उन बच्चों के लिए कि उनके सपने बड़े हों, और सारे सपने पूरे हों।
आज सारा दिन उन बच्चों की रह रह कर याद आती रही।
और निदा फ़ाज़ली भी याद आते रहे -

फ़रिश्ते निकले हैं रौशनी के
हरेक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है
ज़मीं का हर ज़र्रा
माँ के दिल सा धड़क रहा है
हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं....

Monday, November 5, 2012

अतिरेक

बहुत दूर तक पीछा करती है
इक आवाज़
शायद तुमने पुकारा मुझको
बेतहाशा दौड़ता है मुन्तज़िर दिल तुम तक
मगर तुम शांत खड़े हो.....अविचलित !

यूँ तो तुम्हारा सहज स्वीकार भाव छू जाता है मन को
तुम कभी प्रतिकार नहीं करते
सिर्फ हाँ कहते हो हर बात पर
लेकिन आज मासूम शिकायत है मन की

कि आज तक....कभी, कोई शुरुआत क्यों नहीं की तुमने ?
रहते हो क्यों हमेशा यूँ ही शांत....निर्विकार !

तुमने कहा हम प्रेम में हैं
लेकिन हमेशा बेतलब ही देखा तुम्हें
कहीं कोई भावातिरेक नहीं
यूं बिना अतिरेक भी प्रेम में हुआ जा सकता है....अविचलित !?

वैसे ये भी क्या कम है कि
खुद को प्यार किये जाने की इजाज़त दी है तुमने
रोका नहीं कभी
लेकिन जानते हो
तुम्हारी इस स्थिरता ने
अस्थिर कर दिया है मन
तुम्हारे इस अविचलन ने
कर दिया है बहुत विचलित !

(दिल नाउम्मीद तो नहीं......)