Saturday, December 8, 2012

फिर वही सुबह...

फिर वही सुबह
दो कप चाय...अखबार...रेडियो ...
कोई बातचीत नहीं हमारे बीच
लेकिन मौजूदगी का पूरा पूरा एहसास
हम नहीं बोलते
लेकिन सुबह बोलती है
तुम फोन पर बतियाते
मैं ख़ुद में उलझी

अपने-अपने कामों में मसरूफ हम
जैसे बगीचे में दो परिंदे चुपचाप
एक दूजे की चिंता में उतने ही डूबे

फिर वही सुबह है
एक कप चाय...अखबार...रेडियो...
परिंदों का चुप-गान सुनाई नहीं देता आज
ये अबोली सुबह नहीं भाती तुम बिन

Friday, December 7, 2012

काश...! जब मैं रोती...

काश...!
जब मैं रोती...

जब फूट पड़ती भीतर
वर्षा वन की बदली
सैलाब से जज़्बात के
होठों पर चुप सी
अलफ़ाज़ सारे
आँखों से बह निकलते
तुम होठों से पढ़ते
ठंडा मुलायम स्पर्श तुम्हारा
राहत देता...समेट लेता
तपते गालों पर फ़ना हुए आंसुओं को

लेकिन ऐन रुलाई के वक़्त
तुम तो गुस्से से एक तर्जनी दिखाते हो
चुप्प्प...बिलकुल चुप कहते हुए
खबरदार करते हुए कि
एक बूँद भी आंसू टपकाया तो...

कातर आंसू तो ठिठक जाते हैं
मगर सिसकियाँ नहीं थमतीं
हिचकियों में तब्दील हो जातीं हैं

यूँ तो मुझे पता है
रोता हुआ नहीं देख पाते मुझे तुम
लेकिन कभी तो...
कभी तो यूँ भी हो कि
जब मैं रोऊँ...काश...
तुम्हारा पूरा वजूद
रुमाल बन जाए

इत्ती छोटी सी तो तमन्ना है...

Friday, November 30, 2012

निरक्षर

किताबों की तरह
मुझे भी पढ़ते-पढ़ते
ख़ुद इक किताब हो गए हो
अल्फाज़ से भरपूर...मगर ख़ामोश
जिसे मुसलसल पढ़ने के इंतज़ार में
निरक्षर हो गई मैं...

Monday, November 26, 2012

उपनयन



यूँ तो उपनयन एक संस्कार है हिन्दू धर्म के सोलह संस्कारों में से। लेकिन यहाँ जिसका ज़िक्र है वो आर्ट ऑफ लीविंग के बेसिक कोर्स की एक प्रकिया है। हमारे शहर में भी अक्सर अलग-अलग धार्मिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न आयोजन किये जाते हैं।हमारे मित्रों के दो गुट हैं इस मुद्दे पर।एक तो घोर विरोधी हैं इसके। उनका कहना है की धर्म के ठेकेदार हैं सब और ये तो आध्यात्मिकता का व्यवसायीकरण है। और दूसरे ग्रुप

का कहना है कि सारे ऐसे नहीं हैं और बहुत कुछ सीखने को मिलता है ऐसे शिविरों में। और कुछ नहीं तो कम से कम बचपन से जो अच्छी बातें सिखाई गयी थीं, उनका रिवीज़न ही हो जाता है जो आज की भागमभाग भरी ज़िन्दगी में बहुत ज़रूरी है, खुद को रीचार्ज करने के लिए। अच्छी-अच्छी बाते खुद को और औरों को याद दिलाते रहना चाहिए। ख़ैर ...

अपने मित्रों की ज़िद पर मैंने आर्ट ऑफ लीविंग के बेसिक कोर्स का वो शिविर अटेंड किया। दोस्तों के साथ ग्रुप में कोई भी काम साथ मिलकर करने का अपना मज़ा है। सात दिवसीय इस शिविर में काफी चीज़ें बताई गयीं। मुझे वहां जाते हुए, चैतन्य होकर हर चीज़ महसूस करते हुए बहुत अच्छा लग रहा था।मैंने खुद को पूरी तरह योग गुरु पर छोड़ दिया था जो शिविर करवा रहे थे।जो कुछ कहा जाता मैं करती जाती ।और ऑबज़र्व करना मेरा स्वभाव है सो देखा भी करती सभी को। पूरे शिविर में दो बच्चियों ने ध्यान खींच रखा था मेरा। ब-मुश्किल चौदह-पन्द्रह वर्ष उम्र रही होगी उनकी। और माता-पिता के कहने पर शिविर में आईं थीं। हर प्रक्रिया में खेलने लगती थीं । ज़ाहिर है कई बार ऊबती भी थीं।बीच-बीच में योग गुरु की डांट पड़ती उन्हें।कभी -कभी योग गुरु की आवाज़ सुनाई देती- पूजा आखें बंद करो। दोनों बच्चियों में से पूजा ज्यादा चंचल थी। इक पल भी शांत नहीं बैठ पाती थी।

एक दिन शिविर में उपनयन की प्रक्रिया करवाई गई। इसमें जितने लोग थे उन्हें दो ग्रुप में बाँट कर आमने सामने मुंह करके बिठा दिया गया।जैसे खाने की पंगत में बैठते हैं, सिर्फ बीच में गैप नहीं रखा गया था। दोनों बच्चियां एक दूसरे के आमने-सामने बैठ गयीं, ठीक मेरे बगल में। सबसे आँखें बंद करने आग्रह किया गया।बांसुरी पर राग शिवरंजनी मद्धम मद्धम बज रहा था। और योग गुरु की कॉमेंट्री चल रही थी। उनकी आवाज़ आई- धीमे-धीमे आँखें खोलने का आग्रह किया गया। योग गुरु बोल रहे थे- जो शक्स आपके सामने बैठा है,उसका हाथ अपने हाथों में लीजिये और अपलक उसकी आँखों में देखते हुए महसूस कीजिये कि इस कायनात में यही वो शख्स है जिससे आप सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं,यही आपका ईश्वर है।आप प्रेम में डूबे हुए हैं। पूजा मेरी सामने वाली पंक्ति में मेरे पार्टनर के बगल में बैठी थी। वो ईमानदार कोशिश करती अपनी पार्टनर की आँखों में अपलक निहारते हुए प्रेम महसूस करने की लेकिन हंस पड़ती।आस-पास के लोग डिस्टर्ब हो रहे थे।मैं पूरी शिद्दत से प्रक्रिया पूरी करना चाहती थी, लेकिन बेचारी पूजा और उसकी हंसी...योग गुरु की आवाज़ आई कोई हंसेगा नहीं ,लेकिन लगता जैसे किसी ने गुदगुदी कर दी है पूजा को। हंसी रोकने में दोनों बच्चियां पूरी तरह नाकामयाब रहीं थी। मैंने सहज एक नज़र देखा पूजा को वो सहम कर एक बार फिर न हंसने की कोशिश करने लगी।और तभी योग गुरु का आदेश हुआ की एक पंक्ति के लोग ज्यूँ के त्यूं अपनी जगह पर बैठे रहें और सामने वाली पंक्ति के लोग अपनी जगह से थोड़ा सा अपनी दाहिनी ओर खिसकें।आज्ञा का पालन किया गया।अब पार्टनर बदल गए थे । अब मैं और पूजा आमने-सामने थे।अब वो थोड़ी सी शांत थी।योग गुरु ने वही प्रक्रिया दोहराने का आदेश दिया। हमने एक दूसरे का हाथ थाम रखा था।उसके छोटे-छोटे मुलायम हाथ मेरे हाथों में थे।योग गुरु की आवाज़ आई -एक दूसरे की आँखों में आँखें डालिए ...अपलक एक दूसरे को निहारते हुए महसूस कीजिये कि इस दुनिया में यही वो इंसान है जिसके प्यार में आप पूरी तरह डूबे हुए हैं।मैंने अपलक अपनी निगाहें पूजा की आँखों पर टिका दीं। वो बेहद असहज महसूस कर रही थी, हंसी रोकने की कोशिश में उसका चेहरा लाल हुआ जा रहा था, उसने अपना सर झुका दिया और नीचे ज़मीन पर देखने लगी। साफ़ दिखाई दे रहा था की वो अपनी हंसी छुपाने की कोशिश कर रही थी,लेकिन हंसी रोक नही पा रही थी।
फिर मेरे मन में ख़याल आया कि बेचारी बच्ची को इस परेशानी से बाहर निकाला जाए, सो मैंने अपनी आँखें मूँद लीं और राग शिवरंजनी में बांसुरी पर बजती धुन पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।यूँ भी संगीत से बहुत गहरा लगाव है मुझे।और बांसुरी सुनते हुए ईश्वर कृपा को, जीवन में हुई हर अच्छी बात को याद करने लगी। मन आभार के भाव से भर गया था।जीवन में घटित हर अच्छी बात के लिए ईश्वर का धन्यवाद करते हुए मन द्रवित हो आया था और दो बूँद आंसू आँखों के कोरों से निकल कर मेरी गालों पर ढुलक आए थे।मेरी तन्द्रा तब टूटी जब मैंने पाया कि पूजा ने मुझे अपने गले से लगाकर बहुत ज़ोरों से भींच लिया है।और हल्के- हल्के मेरी पीठ पर थपकियाँ दे रही है। उसकी आँखें भीगी हुई थीं, उसने जुबां से तो कुछ नहीं कहा लेकिन मेरा चेहरा उसने अपने दोनों हथेलियों में थामा हुआ था और अपलक मुझे देख रही थी मानो कह रही हो यूँ ना रोइए प्लीज़ ...सब ठीक हो जाएगा। मैं अवाक उसे अपलक देखती रह गई थी। पता नहीं नियमतः उस प्रक्रिया में क्या होना चाहिए था लेकिन मैंने महसूस किया कि हमारा उपनयन तो हो गया था।शायद सच्चा ''उपनयन''।

Thursday, November 22, 2012

उफ्फफ्फ्फ़ !!!! ये समझाइश...

ये जो बात बात पर समझाइश दिया करते हो ना तुम
कि ज़िन्दगी में कुछ रचनात्मक और सकारात्मक
छोटे-छोटे काम करते रहने चाहिए
सही बताएं तो तुम्हें चाहने के सिवा
कुछ अच्छा ही नहीं लगता हमें
प्यार करना क्या इतनी ख़राब बात है ????
तो फिर क्यूँ हर वक़्त
खुद को महान और हमें सामान्य
बताने में लगे रहते हो
किसी को यूँ काम्प्लेक्स देना

कौन सी अच्छी बात है भला ??

( अब देखो ना... ये पढ़ने वालों को भी तुम ही महान नज़र आओगे...)

Wednesday, November 21, 2012

लघु-कथा ''अनन्या '' को कविता की शक्ल में लिखने की एक कोशिश.... मुझे चाँद चाहिए


उसे  चांद चाहिये
चांद तारों की जगमग दुनिया चाहिये
मुस्कुराती हुई और हरी-भरी धरती को देख
खामोश खिलखिलाती हुई दुनिया में बैठी है वह
जहां चांदनी की ओढ़नी में
रोशनी के घूंघट से उसे दिखती हैं
धरती पर कुछ छवियां पास बुलाती हुईं
लेकिन वह नहीं चाहती वहां जाना
चाहती है वहीं से कोई आये उसके रौशन जहां में
लेकिन कहां मुमकिन होता है हदों को तोड़कर
दो दुनियाओं का इस तरह मिलना
बस इसीलिये राह तकती उसकी आंखों में
हरदम झिलमिलाते हैं
सितारों की तरह जगमगाते हुए क़तरे अश्कों के...

* लिखी जा रही कहानी का अंश...

अनिर्विनय !
हम्म ....नाम तो बहुत अच्छा है
…तो फिर पूरा नाम…! प्रियंवदा ने पूछा।
अनिर्विनय ही नाम है ठकुराइन। अवि ने हँसते हुए कहा
अरे ठीक ठीक बताओ ना ....सरनेम क्या है तुम्हारा? प्रियंवदा ने पूछा।
क्या कीजियेगा जानकर ठकुराइन..? चलिए हम शूद्र हैं ...अब कहिये दोस्ती रखनी है या ..??? कह कर मुस्कुराया अवि
उफ्फ... ओह ! तुम भी न अवि ... सर में दर्द हो जाएगा यूं तो पूछते-पूछते।... चलो कॉफ़ी पीने चलें।
शूद

्र के साथ कॉफ़ी पीजिएगा ठकुराइन ??? देखिएगा कहीं धर्म भ्रष्ट न हो जाए आपका।... कहकर जोर से ठहाका लगाया अवि ने।
धर्म तो भ्रष्ट होगा ही अवि ....लेकिन हमारा नहीं ...तुम्हारा ... समझे?
हम ठहरे नॉन वेजिटेरियन ...और तुम तो लहसुन प्याज भी नहीं खाते ...है ना??
प्रियंवदा मुस्कुरा रही थी
उफ्फ ... उफ्फ्फ्फ़ ...ये आपने क्या कह दिया ठकुराइन ??
वही जो तुमने सुना ...लेकिन वो नहीं, जो समझा तुमने... इतना उफ्फ करने की ज़रुरत नहीं ....हम तो सिर्फ जूठी कॉफ़ी पिलाने की बात कर रहे थे।... प्रियंवदा ने कहा।
जी ठकुराइन जी ...हम भी तो यही समझ कर उफ्फ कर रहे थे।... आपने कुछ और सोच लिया क्या?? ... कहकर छेड़ा अवि ने
प्रियंवदा झेंप गई ....अवि ठहाके लगा रहा था।

एक लघु-कथा पोस्ट की थी हमने '' अनन्या '' उसे एक लोक कथा में तब्दील कर दिया...एक नज़र देखें प्लीज़.... लघु लोक कथा



बहुत पुरानी कहानी है, दूर किसी देश में एक राजकुमारी रहती थी। करुणा और प्रेम से भरा बेहद खूबसूरत हृदय था जिसका , उसे लगता सौन्दर्य में ईश्वर का वास है। उसे सिर्फ प्रेम से ही प्रेम था।राजकुमारी यूँ तो धरती पर रहती थी लेकिन हक़ीक़त की पथरीली दुनिया के सापेक्ष उसकी अपनी कल्प

ना की एक बेहद खूबसूरत ,रंगीन सपनीली दुनिया थी। चाँद तारों की दुनिया चाँद तारों के सपने...जहाँ सब कुछ बहुत सुन्दर बहुत अच्छा था।उस पथरीली दुनिया से उसे बहुत डर लगता।इस दुनिया का बड़ा खौफ था उसके मन में।
हक़ीक़त की दुनियां से टकराकर जब भी उसके ख्वाब तार तार हो जाया करते, वो बदहवास तेज़ क़दमों से भागती अपनी सपनीली ख्वाबों ख्यालों की दुनिया में शामिल हो जाती। और सुकून की सांस लेती।बेशक वो हक़ीक़त की दुनिया से डरती लेकिन वो दुनिया हमेशा से ही उसके लिए कौतूहल का विषय भी थी। वो देखती कभी-कभी कुछ लोग उस पथरीली दुनिया से उसे देखकर मुस्कुराते हैं , हाथ हिलाते हैं । उसका दिल करता कि वो लोग कभी मेहमान बनकर उसकी चाँद तारों की दुनिया में आएं।
आज हक़ीक़त की दुनिया से एक राजकुमार उसकी सपनीली दुनिया में दाखिल हुआ। राजकुमारी बेहद खुश हुई और बड़ी आत्मीयता से उसे अपनी दुनिया में शामिल कर लिया। राजकुमारी के पाँव ज़मीन पर नहीं थे,वो बेहद खुश थी।धीरे-धीरे राजकुमारी राजकुमार के प्रेम में डूबती चली गयी।
और फिर कुछ ही समय बाद यथार्थ और कल्पना की टकराहट से राजकुमारी की तंद्रा टूटी।राजकुमारी चाहती कि राजकुमार उसे यूँ गले लगा ले कि फिर किसी जनम में वो अलग न हो सकें, यूँ ही गले से लगे हुए ज़िन्दगी ख़त्म हो जाए। इस नज़दीकी से राजकुमार का दम घुटने लगता। वो खुली हवा में सांस लेना चाहता। अब इस मुश्किल का कोई हल नहीं था, क्यूँकर होता भला ...होता ही नहीं है। राजकुमारी ने पाया कि दोनों के बीच घटती दूरियों ने चीज़ों को खूबसूरत नहीं रहने दिया है, क्यूंकि हर चीज़ एक निश्चित दूरी से अच्छी लगती है और मुश्किल ये है कि ये दूरी, ये हदें सबकी अलग-अलग हैं। इन हदों की टकराहट में चीज़ों का सौन्दर्य खोने लगता है। यहाँ भी यही हुआ , प्रेम की तीव्रता ,उसके आवेग के अंतर ने दोनों को तोड़ के रख दिया। और इससे भी बड़ी मुश्किल ये कि इस सपनीली दुनियां में, किसी की आमद जितनी आसान है वापसी उतनी ही मुश्किल ...बल्कि असंभव। आते हुए पांवों के निशाँ पकड़कर कोई वापस जा नहीं सकता।
इधर सुनते हैं कि ...इक राह जो थमी थी ....आज फिर दिखती है राजकुमारी की आँखों में ...झिलमिला आए मोती के पीछे।

Monday, November 19, 2012

शरद चंद्र...

सुनो चंद्रमा शरद के
यूँ न मुस्कुराया करो तुम कि
तुम्हारी मुस्कान में बरसती हैं
जो किरणें शीतल
मुझ तक आकर वही किरणें
तीर हो जाती हैं और
मैं लेट जाती हूं अंतरिक्ष में
जैसे शरशैया पर बिरहन...

नीले पंखों वाली चिडि़या...

अरी सुनो !
कितनी तो सुहानी सुबह है ये
जैसे पहली बार उतरी है धरती पर आज
हमेशा की तरह
तुम्हारी आँखों में ये जो हैरानी सी है
बहुत जानी पहचानी पुरानी सी है

ये जो बदला हुआ सा मंज़र दिखाई देता है
दरअसल वो किसी के होने से है
किसी के होने को यूँ हैरानी से न देखो
तुमसा मासूम भी कोई दुनियाँ में है
अपनी परवाज़ उसे दे दो
ओ! नीले पंखों वाली चिड़िया
कि नीले सपनो की दुनियाँ आसमान छू सके

लघु-कथा / अनन्या



अनन्या आज रात चाँद देख रही थी। उसकी आँखों में चाँद तारों के सापेक्ष एक दुनिया मुस्कुराती है, जो हरी भरी धरती को देख कुछ सहम सी जाती  है।
दो चार लोग उसी हरी भरी दुनियां से हाथ हिलाते हैं। अनन्या ने चाहा कि वो लोग उसके इन चाँद तारों की दुनिया में यूँ ही कभी मेहमान बनकर आएं।
किसी को भी शामिल कर लेना अपने जहाँ में कितना आसान होता है, लेकिन  जाने क्यूँ घटी हुई दूरियां सौंदर्य मिटाने पे आमादा हो जाती हैं।
आते हुए पांवों के निशाँ पकड़कर कोई गुज़र क्यों नहीं जाता ?
एक राह जो थमी थी आज फिर दिखती है अनन्या  की आँखों में, उसी चाँद को देखते हुए आँखों में झिलमिला आए मोती के पीछे।

जिबरिश...



महज़ कविता लिखने के लिए
रोया नहीं जा सकता
लेकिन रो लेने के बाद
ज़रूर एक फ़लक...जो धुंधला सा था
अब साफ़ नज़र आता है....स्लेट सा
जिस पर तुम्हारी बूँदें रचती हैं शब्द
वो शब्द जो तुम्हारी रुलाई में फूट पड़ते हैं जिबरिश
जिनकी ध्वनि नहीं रचती कोई चित्र

लेकिन रचती है एक जहान
मेरे प्रेम का

( * जिबरिश = अगड़म बगड़म बोले गए शब्द / ध्यान की एक विधि )

अर्धसत्य...

तुम झूठ नहीं बोलते
तुमने ही तो कहा
अच्छा ये तो बताओ
अर्धसत्य बोलते हो या
कि वो भी नहीं ??
अगर नहीं तो भूल ही जाओ प्रेम
तुमसे तो हो ही चुका
अब इस जन्म में
प्रेम...

चौबीस में से 72 घंटे तुम्हारे साथ...



अब तुम्हारे साथ और ज्यादा
रहने की चाहत का
हल मिल गया है मुझे
... तुम्हारे साथ में रहने या कि
तुम्हें सोचते हुए
एक पल का मतलब है एक पूरा दिन
और तुम्हारे बिना जीने का मतलब
एक युग जी लेना
इस तरह तुम्हारे होने और न होने के
फर्क को मिटा दिया है मैंने...

Tuesday, November 6, 2012

अहाssssssss टुकुस - टुकुस :)))))))) हाँ!:) वाकई अच्छा लगता है जब मिले कुछ अनेस्पेक्टेड....:)))

आज सुबह की एक छोटी सी घटना जो दिल को छू गयी.....सोचा आपके साथ भी शेयर कर लें....

जो काम हम करते हैं आकाशवाणी में, उसके ड्यूटी आवर्स बड़े ऑड हैं। शिफ्ट ड्यूटी हुआ करती है। कभी सुबह पांच बजे जाना होता है, कभी रात ग्यारह साढ़े ग्यारह लौटना होता है। और अक्सर आते जाते समय कॉलोनी के गार्ड को ज़हमत देनी होती है गेट खोलने के लिए। यूँ तो ये उसका काम ही है लेकिन बहुत बुरा लगता है, जब कई बार सुबह वो नींद

में आँखें मलते हुए लगभग कांपते हुए गेट खोलता है। ख़ास तौर से ठण्ड और बारिश के मौसम में। इसलिए अक्सर सुबह हम गाड़ी से उतर कर ख़ुद ही गेट खोल लिया करते हैं। जब कभी बहुत देर हो रही होती है तो मजबूरन हॉर्न बजाना पड़ता है। एक दिन बहुत हड़बड़ी में थे, दूर ही से हॉर्न भी बजाया लेकिन वो शायद गहरी नींद में था, जाग नही पाया। हमने देखा मिसेस साहू मॉर्निंग वॉक पर निकली हुई हैं, और गेट के क़रीब ही हैं। उन्होंने मुड़ कर देखा भी था। यूँ नहीं था मन में हमारे कि वो हमारे लिए गेट खोलें, और उन्होंने धीरे से एक गेट ज़रा सा खोला और बाहर निकल गयीं और जाते हुए गेट वापस बंद भी कर दिया। हम गाड़ी से उतरे, हमने भी गेट खोला और ज़रा सी स्पीड बढ़ाई कार की और दौड़ते हांफते पहुंचे ऑफिस। आज भी ऐसा ही एक दिन था जब सुबह सुबह देर हो गयी थी। हम कॉलोनी के गेट तक पहुंचे ही थे कि देखा गाड़ी की लाईट देखकर गेट के बाहर एक छोटी बच्ची ने दौड़कर गेट खोलना शुरू किया। गेट थोड़ा भारी है बच्ची बड़ी ज़ोरों से हंसती हुई उसे पूरी ताक़त से उसे धकेल रही थी। तब तक हम भी उतर गए गाड़ी से और हमने दूसरा गेट खोला। बच्ची बहुत खुश थी मुस्कुराकर हमें देख रही थी। और तभी बाहर नज़र गयी बहुत से बच्चे थे, और पीछे कुछ बड़े लोग भी दिखे। ये शायद आसपास के गाँव से आये लोगों का झुण्ड था संभवतः राज्योत्सव देखने आए होंगे।
हमने बच्ची के सर पर प्यार से हाथ फेरा और हमारे मुंह से निकला थैंक यू सो मच...हमारा थैंक्स कहना था और सारे बच्चे एक सुर में चिल्लाए '' यू आर वेलकम मैम '', बच्चों की खिलखिलाती आवाज़ सारी फिज़ा में तैर गयी। ज़रूर स्कूल में टीचर ने सिखाया होगा। ग्रामीण बच्चों का पढ़ना , कुछ सीखकर उसे समय पर इस्तेमाल करना और इन सब से बढ़कर वो '' प्योर इनोसेंस '' जो उनके चेहरों पे होता है उसकी तो बात ही अलग है। हमारे चेहरे पर भी मुस्कान तैर गयी थी। दिल से दुआ उन बच्चों के लिए कि उनके सपने बड़े हों, और सारे सपने पूरे हों।
आज सारा दिन उन बच्चों की रह रह कर याद आती रही।
और निदा फ़ाज़ली भी याद आते रहे -

फ़रिश्ते निकले हैं रौशनी के
हरेक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है
ज़मीं का हर ज़र्रा
माँ के दिल सा धड़क रहा है
हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं....

Monday, November 5, 2012

अतिरेक

बहुत दूर तक पीछा करती है
इक आवाज़
शायद तुमने पुकारा मुझको
बेतहाशा दौड़ता है मुन्तज़िर दिल तुम तक
मगर तुम शांत खड़े हो.....अविचलित !

यूँ तो तुम्हारा सहज स्वीकार भाव छू जाता है मन को
तुम कभी प्रतिकार नहीं करते
सिर्फ हाँ कहते हो हर बात पर
लेकिन आज मासूम शिकायत है मन की

कि आज तक....कभी, कोई शुरुआत क्यों नहीं की तुमने ?
रहते हो क्यों हमेशा यूँ ही शांत....निर्विकार !

तुमने कहा हम प्रेम में हैं
लेकिन हमेशा बेतलब ही देखा तुम्हें
कहीं कोई भावातिरेक नहीं
यूं बिना अतिरेक भी प्रेम में हुआ जा सकता है....अविचलित !?

वैसे ये भी क्या कम है कि
खुद को प्यार किये जाने की इजाज़त दी है तुमने
रोका नहीं कभी
लेकिन जानते हो
तुम्हारी इस स्थिरता ने
अस्थिर कर दिया है मन
तुम्हारे इस अविचलन ने
कर दिया है बहुत विचलित !

(दिल नाउम्मीद तो नहीं......)

Monday, October 29, 2012

पारदर्शी....पर्दा



तुम्हारी ये तस्वीर
जिसमे मुंह फेर के खड़े हो तुम
यूँ तो बारहा गुज़री है मेरी निगाहों से
बाज़वक़्त ना जाने क्यूँ
उस पर अटक अटक जाती है निगाह


इसमें चश्मे के भीतर से

झांकती आँखें
एक पर्दा है तुम्हारे मेरे बीच,पारदर्शी |
इस परदे से गुरेज़ नहीं
शिकायत तो उन आँखों से है
जो परदे का सहारा ले
तकती हैं कहीं दूर.......बहुत दूर

सच बताना इन आँखों में क्या है ??
चलो झूठ ही कह दो
के मेरी कोई तस्वीर है
जो ठीक इसी तरह बिंध गयी है...

Monday, October 22, 2012

छोssssटा सा वो इक पल...

छोssssटा सा वो इक पल...
तुमने नज़र भर देखा
स्नेह से सिर सहला दिया
और तुम्हारी प्रेमिल पनीली आँखों का इक मोती
मेरे गालों पर ढुलक आया है...

सिर्फ़ उलाहनों को क्या ??

बहुत हुआ
चलो अब यूँ कर लें
कहानी ज़रा मुख़्तसर कर लें
उलाहने लपेटकर कही बातों की
सलवटें ठीक कर लें

आओ कि शाम ने
सुबह से ही उदासी की दस्तक दी थी कई बार
इस बुझे मन से कि कोई
तुम्हें याद करता है सिर्फ़ उलाहनों को क्या ?

बस यूँ समझ लो
आज रात चाँद देखकर
दिल मुस्कुराना चाहता है
गुज़िश्ता मौसमों ने
चाहे लाख ख़ताएं कीं
दरख्तों को बारिशों में भीगना
अच्छा लगता है

Sunday, October 21, 2012

ये चाँद..

बेक़रार रातों का साथी है वो,
राज़दार है दिल के अरमानों का,
ये चाँद नहीं है, फ़रिश्ता है कोई,
गवाह है जो सदियों से,
उल्फ़त के फ़सानों का,
वो दोस्त है...हमदर्द है...दिलनवाज़ है वो,
वो हमसाया है...हमसफ़र है...हमराज़ है वो ''

 ( इक पुरानी पोस्ट )

Saturday, October 13, 2012

ओ! ज़िद्दी मासूम सी लड़की...

ओ! ज़िद्दी मासूम सी लड़की
क्या फिर पुकारा मुझको ?
पुकारा...या धमकाया...डराया मुझको
सर्दी से सुड़कती नाक
और पनीली आँखों को चमकाकर
एक अदृश्य गन पॉइंट मेरे पीछे टिकाकर

लगातार देती हो आदेश
ये करो..वो करो..अरे! अरे! ऐसे नहीं...वैसे
नहीं तो समझ लो
जी है ज़िन्दगी अपनी शर्तों पे अब तक
तुम कहाँ से ऐसे -
महीन अक्षरों वाली चेतावनी सी
मेरे मन में सितारा सी चमकती हो...

Thursday, October 11, 2012

एक भी दिन....तुम बिन...



दिन ढला ऐसे
सांझ उतरी हो मन में जैसे
थककर नाराज़ मन भी
शिकायती हो गया

गहराती रात के साथ
शिकायतें भी
होने लगीं उदास

ढल चुकी है रात
आँखों से टपकती हुई
याचना लिए होठों पर
बची है सिर्फ़ बेबसी

देखा ना...जिया नहीं जाता
एक भी दिन...तुम बिन

Wednesday, October 10, 2012

रात आधी...

नींद की सेज़ पे ख्वाब तेरे
रात भर करवटे बदलते रहे
नजरें आसमां में अक्स बनाती रही
तारे ज़मीन पे बरसते रहे

Tuesday, October 9, 2012

आधी रात......पूरा चाँद....

वो लम्हा ..जब तुम पास थे
मेरी आँखों के दरिया का बांध
तुम्हारे कंधे पर टूट- टूट गया था
तुम्हारा मुझे थामना एक बारिश का ...
उस बांध में फिर- फिर भर जाना था
या टूटी दरार पर तुम्हारा खुद सिमट जाना था
पता नहीं .....
हाँ ! ये पता है एक धड़कन का आरोह

दूसरी के अवरोह से यूँ मिलता था ...
जैसे एक घाटी मिलती है हिम शिखर से
एक दिन तुमने कहा था न , देखो !.....
कैसे ये पूरा चाँद ...थपकियाँ देता है , समंदर को
मैंने चाँद को नहीं, तुम्हे ..निहारा था
आज ...फिर फूटा है , सैलाब
वही आधी रात और ...पूरा चाँद है
तुम नहीं हो ....

Sunday, October 7, 2012

आत्मीय क्षणों में

आत्मीय क्षणों में बातें करते-करते
अचानक तुम मीटिंग में चले गए,
और मैं आटा गूंथने लगी...
अब तुम मीटिंग में हो ऑफिस में
मैं रोटियाँ बना रही हूँ किचन में
तुम्हारी मीटिंग भी
बेनतीजा ही रहने वाली है
रोटियाँ  गोल नहीं बन रही
न ही फूल रही है
हम अब भी बातें कर रहे हैं
उतनी ही आत्मीयता से....

Monday, September 24, 2012

चमकते तारे...

मेरी आँखों में चमकते तारे
तू न आया तो बरस जाएँगे
तू जो आया तो थम न पाएँगे
इनकी फितरत ही कुछ ऐसी है
ये हैं तो मेरे...पर हैं तेरे लिए
रोज़ चले आते हैं ये सांझ ढले
रात भर पलकों पे डब-डबाते हैं
सुबह होते ही छलक जाते हैं
खाली कर जाते हैं निगाहें मेरी
तेरे ख्वाबो के तलबगार हैं ये

Saturday, September 22, 2012

ओ ! ख्‍व़ाबीदा शख्‍स़



सुनो !
कौन हो तुम ?
अजनबी ?
तुम अंजान हो सिर्फ इसलिए न कि
तुम्हारा कोई नाम
कोई चेहरा नहीं ?
तुम्हें कभी देखा नहीं
सुना...छुआ नहीं ?


है तो अजीब लेकिन सच है
रोज़ आते हो ख्यालों में
हर बार अकेला छोड़ जाने के लिए
कभी मिले नहीं मगर
हर बार बिछड़ जाते हो ?

लेकिन सुनो !
तुम्हें इतना और इस क़दर
सोचा है मैंने कि
अब कहीं से नहीं लगता कि
अंजान या कि कोई अजनबी हो तुम

कुछ ख्‍व़ाबीदा शख्‍स़ होते हैं अक्‍सर
बिन चेहरे और पहचान के
जो हमेशा लगते हैं
बिल्‍कुल ऐसे
जैसे तुम...

Friday, September 21, 2012

शुक्रिया !....दोस्त....!

 शुक्रिया !....के तुम मेरे दोस्त हो !

इस दुनिया में जो किसी से न कहा जा सके वो तुम से कहा जा सकता है
तुमसे कुछ कहना जैसे ख़ुद से ही बातें करना है
तुम दिल में रहते हो इसीलिए दिल की बातें पहले ही जान लेते हो
सुकून के दो पलों को इसी एक रिश्ते की दरकार है
ममता का आँचल हो या परवरिश का साया
बचपन की शरारत हो या सहारा देते कंधे सहलाते हाथ
ज़मीं से लेकर आसमान तक रिश्तों की कड़ी में
हर रिश्ता अंततः चाहत रखता

है दोस्ती की
जी चाहता है सारी दुनिया को बता दूं कि तुम मेरे दोस्त हो
दोस्ती का हनीमून पीरियड जो चल रहा है...और यूँ भी
मित्रता में होना भी, प्रेम में होना ही तो है !

Tuesday, September 18, 2012

चाहत

हसरत तुम्हें जी भर देख पाने की
पूरी न हो जाए कभी कि फिर
दिल न तरसे तुम्हारी एक झलक को

तुम्हें छूने की चाह रह जाए अधूरी ही कि
छूकर भी तुम्हें छूने की चाहत की
शिद्दत कम न हो कभी

मिलन का छोटा सा वो पल ही भरपूर है
मन की ये अतृप्ति यूँ तृप्त न हो जाये कहीं

कि फिर कोई प्यास ही न रहे बाकी

आत्मा के तल पर तुम्हे महसूस करते
रोम रोम भीग कर पिघलता चला जाये
तुम्हें टूटकर चाहने के लिए
कितना तो ज़रूरी है अधूरी इच्छाओं का पूरा न हो सकना

Saturday, August 18, 2012

अजीब मनःस्थिति में...कभी किसी उदास रात में दो कविताएँ लिखीं थीं...


पहली कविता...


कल रात


जो कुछ कहा तुमने
क्यूँ कहने को मुझे चुना तुमने
वही कह रहे थे तुम
जो मरकर भी सुनना चाहेगा कोई

लेकिन
इस तरह कहा तुमने
कि सुना ही न गया

अपना तो कहा लेकिन
माना कहाँ अपना

जो माना होता
तो कहो तो भला
क्यूँकर कहते
जो कहा तुमने ?

अपना मानते तो भी
कहते वही
जो कहकर एक ही पल में
कर दिया पराया तुमने
****************

 ये दूसरी कविता.....



कभी होता है यूँ भी
कि अपने ही दिल का
पता नहीं होता ख़ुद को

ये जानकर भी कि
तुमने दुखाया है दिल
तुमसे नाराज़ नहीं मैं

चोट खाकर, सबकुछ सह कर भी
तुमपे गुस्सा नहीं आया
क्यूँ आख़िर ?

तुम तो कोई नही हो न मेरे
सिर्फ एक दोस्त...जस्ट ए फ्रेंड
तो क्यूँ ये सोचकर
हैरान है दिल कि

तुम उदास होगे
परेशान होगे
ख़ुद से नाराज़ होगे

ये दिल भी ना ,अजीब शै है
धड़कने से इसके ज़िंदा हैं हम
धड़कनों से इसकी जीना मुहाल है


Friday, August 17, 2012

एक सवाल ऐसा भी -----------------------

आज फिर भीगा है मन
स्नेह से तरबतर हैं
सजल नयन
सोचकर हैरान हूँ
कैसा था वो पल निर्मल
आँखों में वो तड़प
हो रहा तन मन विकल
मीलों लम्बी थी गहराती
रात आधी
अन्धकार था ज़्यादा घना या
ख़ामोशी  इसकी
दूर आसमाँ पर था चमकता
एक बुज़ुर्ग  सितारा
पिता के बारहा ज़िक्र पर
पनीली आँखों से तड़प कर
झिझकते संकोच से लरज़ते
स्वर में पूछा  था  ये सवाल
'' क्या हम , अपना रिश्ता बदल सकते हैं  ???''

Tuesday, August 14, 2012

मासूम ख़यालों ने अपनी आगोश में ,जब कुछ ख़्वाब समेटे ,
कुछ यूँ ही बेइरादा ख़्वाहिशें , आँखों में मुस्कान संजो गईं ,
चहरे की नरमी सुर्ख होकर, नई साँसों की खुशबू में खो गई ,
कुछ नए रंग बिखरे , कुछ नए सुर सजे ,
ज़िन्दगी की नई तस्वीर जैसे ख़्वाबों के रंग से सजी ,
ख़्वाहिशें तरन्नुम में नई ग़ज़ल गुनगुनाने लगीं ,
लेकिन इस बेख़ुदी के न तो ख़्वाब पहचाने से थे ,न ही ख़्वाहिशें ,
चेहरे का नूर , आँखों की मुस्कान , नया रंग और तरन्नुम भी, दुनियाँ से जुदा थे ,
वो क्या था जो बिखर गया....
किसी फ़रिश्ते की दुआओं का शाहकार था शायद...
या थी वो किसी मासूम दिल की, मासूम फ़रियाद...

Sunday, August 12, 2012

 अनदेखी...अनजानी सी
वो ख़ुशबू बहुत जानी पहचानी सी
किसी बियाबान में चलते
महके रातरानी सी

सागर सा अथाह और
पहाड़ी झरने सी उच्‍छृंखल खिलखिलाहट का
अप्रतिम मेल !
विस्मय भी होता है...मान भी
और इस पर उसकी सहजता
अद्भुत !
मुग्ध करती मुझे वो दूर सितारों से आती
आवाज़ या कि दिव्य पुकार
बुलाती है बार-बार
अपने पास और पास

अनजाना ये बंधन दो रूहों का
खींचता है मुझे अनायास
जैसे सृष्टि में कोई सितारा खींचता है
अपने ही पड़ोसी किसी तारे को
उसी तिलस्‍मी तारे की तरह

खिंचती ही चली जाती हूँ मैं
उस अदृश्य डोर से बंधी
बेबस....अवश !

Saturday, July 21, 2012

तुम भी ना एक अजीब शै हो
..............................
................
सिर्फ़ एक मुलाक़ात
छोटी सी...
तुम्हारी कुछ तस्वीरें
कुछ विचार
और हाँ फ़ोन पर चंद बातें
कुल जमा तीन बार
और लो हो गई
एक धरोहर
सारी उम्र की

मुलाक़ात चाहे छोटी ही सही इतनी बदहवासी में भी हमने
साँसों का संगीत सुना
हां, इस बीच तुमने
इक नज़र देखा भी था मुझे
कनखियों से तुम्हें देखती
उन आँखों के नूर से रौशन हुई मैं
उजली-उजली सी
धुली-धुली सी

मिल जाता है हर बार
कुछ न कुछ तुम्हारी छवियों में
इस बार
पलंग के पास मेज़ पर
पेन, डायरी, किताबें और दवाइयां
और वो भरा-भरा ख़ाली सा कमरा

ना जाने किस संवाद में एक बार
पुकारा भी तो था मेरा नाम तुमने
तुम्हारे अनाहत से होता हुआ
विशुद्धि से निकलता मेरा नाम
शुद्ध
सुगन्धित
पवित्र हो गया
और इस तरह हमने एक दूसरे को
दोनों चक्रों से छू भी लिया

सुनो,
उसी छुअन की कसम खाकर कहती हूं
हमारी बातों में वो अबोली..अपरिभाषित बातें
ना जाने क्यूंा कभी-कभी नाकाफी लगती हैं
ज़िन्दगी के लिए

पहले से छलकी हुई मैं कुछ और भर गई
कि रीत गई और कुछ...
अब बस
इतनी-सी तमन्ना है कि
हर जनम बस इतनी सी गुंजाइश देना
मेरे मौला कि किसी तौर तुमसे
जुड़ी रह सकूं मैं...

Wednesday, June 27, 2012

पाँव छू लेने दो...


 जब ज़िन्दगी के मायने नहीं पता होते, तब भी कोई ज़िन्दगी का हिस्सा होता है..ज़िन्दगी होता है. जब हमें रिश्तों की अहमियत नहीं पता होती, तब भी कोई रिश्ता होता है जो हमें एक अलग अंदाज़ में संवारता रहता है..निखारता रहता है. कभी-कभी हमें ये एहसास ही नहीं हो  पाता कि हम क्या कुछ खो रहे हैं. बहुत अहम् रिश्तों के होने का कई बार दिल को एहसास ही नहीं होता..कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो बिना अपना महत्व दिखाए बस हमारे साथ होते हैं, हमारे अस्तित्व की तरह. मुट्ठी से रेत फिसल जाने का अहसास भी तब होता है जब ठीक वैसा ही कोई पल अचानक सामने आकर खड़ा हो जाता है | 

और ऐसे में एक छोटी-सी घटना ही हमें अतीत के उन बीहड़ बियाबानों में छोड़ आती  है, जिन्‍हें हम  ज़िन्दगी की उठापटक में सिरे से ही भूल चुके होते हैं। तो ऐसी ही एक घटना या कहें कि दुर्घटना पता नहीं कैसे यादों के कोठार से निकल कर चुपचाप चली आई।  

आज ‘आदि’ आ रहा था, कितने बरस बाद..ना जाने कैसा होगा अब वो ?
आदि मेरे बचपन का दोस्त.....वैसे उसका नाम
''आदित्य'' है...लेकिन प्यार से हम सब उसे आदि बुलाते हैं| हमारी पैदाइश से भी पहले की मित्रता है दोनों परिवारों की. पापा ने बताया कि उसके मामा की बेटी कि शादी है  वो लोग    हमें शादी का निमंत्रण देते हुए बनारस निकल रहे थे. शादी बनारस से होनी थी और यहाँ से भी कुछ ख़रीददारी करनी थी.  उनके आने से बड़ी रौनक थी घर में. कितनी भूली बिसरी पुरानी यादों के साथ  आए थे वो लोग. रह रह कर किसी न किसी बीती पुरानी बात का ज़िक्र हो ही जाता. अरे! वो याद हैं आपको...वो जो शिव जी का मंदिर था न....शायद भूल गयीं हों आप....इस तरह के वाक्यों से बातों की शुरुआत  हो रही थी... और थोड़ी ही देर बाद सब अपने हमउम्र लोगों के साथ बातचीत में मशगूल हो गए...आंटी मम्मी के साथ, अंकल पापाजी के साथ, बच्चे आपस में, और मैं और आदि आपस में  बीते दिनों की बातों में मसरूफ हो गए. मैं आदि से अपने स्कूल के बाक़ी दोस्तों और टीचर्स के बारे में पूछ रही थी. कौन कौन कहाँ रहता है..क्या जॉब करने लगा है..किसकी किसकी शादी हो गई. किसके कितने बच्चे हैं वगैरह..वगैरह..

‘’आप थोड़ी सी सेहतमंद  हो गईं हैं ‘’, बातों बातों में उसने कहा  
‘’और तुम बिलकुल वैसे ही हो ‘’, मैंने कहा. वो मुस्कुराया.
‘’और ये बालों का स्टाइल भी चेन्ज किया ना ‘’,- उसने पूछा.
‘’हूँ..’’, मैंने हाँ में गर्दन हिलाई.  
‘’और तुमने ये हाथों में इतनी अंगूठियाँ क्यूँ पहन रखीं हैं ? और ये स्फटिक की माला और रुद्राक्ष की भी ?‘’ मैंने पूछा.
‘’हाँ!  मम्मी चाहतीं हैं मैं  पहनूं’’, उसने कहा.
‘’हम्म्म...अब लग रहे हो पूरे पंडित जी...पंडित आदित्य नारायण पाण्डेय’’, मैंने कहा.
जोर से ठहाका लगाया उसने.
‘’आपकी आँखें और मुस्कान बिलकुल वैसी ही हैं’’, उसने कहा.
‘’तुम्हारी भी’’, मैंने कहा.
हम दोनों मुस्कुरा रहे थे.
बातों से दिल ही नहीं भर रहा था. नहाकर तैयार होने और नाश्ता करने में ही ग्यारह बज चुके थे. आदि के दोस्त की दुकान थी जहाँ से कपड़े ख़रीदे जाने थे.

कपड़े खरीदते वक़्त मैंने कहा आदि मैं मोनी  के लिए मैं पसंद करती हूँटुकू के लिए तुम पसंद करो. मोनी आदि की प्यारी सी बेटी है. और टुकू मेरा बेटा. हम कपड़े पसंद करने लगे तो दुकानदार ने मेरी तरफ इशारा कर आदि से कहा - आदि भाभी जी की पसंद बहुत अच्छी है. लेकिन  जब उसने दोबारा ये बात कही तो आदि ने  उससे कहा, देख यार, ये तेरी भाभी ज़रूर है, लेकिन मेरी बीवी नहीं है. यह कहते हुए उसने एक  नज़र मुझ पर भी डाली. मैं भी थोड़ा हड़बड़ा गई थी. दुकानदार अपनी गलती पर शर्मिंदा हुआ और उसने हमें सॉरी भी कहा. आदि ने मेरे लिए पिंक कलर की एक बेहद खूबसूरत सी साडी खरीदी. ये आपके लिए उसने कहा. पिंक यूँ भी शुरू से ही मुझे  पसंद है.
‘’इसकी क्या ज़रुरत थी आदि’’,-मैंने कहा.
‘’अरे! आप तो बहुत बदल गईं ‘’,- उसने कहा.
‘’क्यूँ ,क्यूँ भला ?’’, मैंने पूछा.
‘’गिफ्ट के लिए  मना  कर रहीं हैं तो ज़ाहिर है बदल तो गईं ही हैं’’,  वरना आप तो किसी के लिए खरीदा हुआ गिफ्ट भी खुद रखना चाहती थीं न…कह कर छेड़ा उसने.
हम दोनों ही हंस पड़े.
मैंने उसके लिए टक्सीडो पसंद किया. 
‘’मैं शादी में यही पहनूंगा’’,उसने कहा. 

शॉपिंग करते हुए दोपहर के तीन बज गए थे. अब घर  पहुँच कर  खाना बनाने  और खाने में देर हो जाएगी  ये सोच  कर आदि ने होटल में खाने का प्रस्ताव रखा
फिर हम सब होटल में गए खाना खाने. सब अपनी पसंद की चीज़ें ऑर्डर कर रहे थे. आदि ठीक मेरे सामने वाली चेयर पर बैठा था.बच्चों की फरमाइश पूरी करने के बाद उसने मुझसे पूछा -''आपके लिए पनीर बटर मसाला ऑर्डर कर दूं ?
‘’तुम्हें याद है’’, मैंने हंसकर पूछा ?  
‘’पनीर तो आप किसी भी तरह खा सकतीं हैं ? ‘’,उसने कहा.
‘’वैसे अब मैं भी ‘’, कहकर वो मुस्कुराया.
‘’लेकिन तुम तुम तो नहीं खाते थे ?’’, मैंने कहा.
‘’अब मैं भी खाता हूँ ‘’, - उसने कहा.
सबने अपनी पसंद की आइसक्रीम ऑर्डर की.
‘’आपके लिए टूटी फ्रूटी मंगवाई है’’, -उसने कहा.
‘’अरे! वाह! आदि...तुम्हे तो सब याद है’’,- मैंने कहा.
आइसक्रीम खाने के बाद रानी साहिबा…
'' पान खाना चाहेंगी'' , उसने बात पूरी की.
पान खाते हुए हम सब घर लौट रहे थे.कितनी पुरानी छोटी छोटी बातें याद थीं उसे.
हम सब लोगों ने ख़ूब मज़े किये..सच तो ये है कि पूरा दिन ही बड़ा ख़ुशनुमा बीता.अतीत की यादें जैसे किसी फिल्म की रील की तरह आँखों के आगे चल रहीं  थीं, और हम उसका पूरा लुत्फ़ उठा रहे थे.


लौटते वक़्त आदित्य ने  मम्मी जी  के पाँव छुए. चिढाते हुए मैंने कहा, ‘’मेरे भी छुओ आदि, पूरे दो महीने बड़ी हूँ तुमसे’’,
 ‘’आइये छू लूँ’’, कह कर वो झुका.
‘’आप तो यूँ कह रही हैं जैसे मैंने कभी आपके पाँव  छुए ही न हों’’, कहते हुए बड़ी अजीब नज़रों से मुझे देखा उसने.
‘‘देखो झूठ मत बोलो तुमने कब पैर छुए हैं मेरे’’ मैंने कहा.
‘‘आपको कुछ भी याद नहीं है न ?’’, बेहद उदास स्वर में पूछा उसने.
और फिर आंटी की आवाज़ आई जल्दी करो आदि, अब चलना चाहिए वरना  घर  पहुँचने में रात हो जाएगी. और सबने हवा में हाथ लहराते विदा ली. सालों बाद यूँ सबसे मुलाक़ात चाहे कम वक़्त के लिए ही सही बड़ी आनंददायी रही.

लेकिन वो इक बात जो जाते जाते उसने कही..और उसका उदास चेहरा ज़ेहन में रह रह के आ रहा था. मैं सोच में पड़ गई कि क्यूँ कहा उसने ऐसा ? कब उसने मेरे पाँव छूए होंगे?  होता है कभी यूँ भी कि लोग जाकर भी नहीं जाते... जाते हुए ख़ुद को हमारे भीतर छोड़ जाते हैं. दिनभर साथ बिताए पलों की यादें ज़ेहन में छाई हुई थीं. रात सोते वक़्त बचपन की भूली बिसरी यादों में खो गई मैं.

आदिsss आदिsss रुको आदि...मैं उसके पीछे चिल्लाती हुई दौड़ रही थी, और फिर पकड़ लिया उसे.
मुंह खोलो, जल्दी मुंह खोलो, क्या खा रहे हो... कहती हुई हाथ के अंगूठे और तर्जनी से मैंने उसके दोनों गाल दबा दिए.  औरेंज कैंडी थी, उसके मुंह में. कैंडी मुंह से निकल के होठों पर गई थी. वो उसके मुंह से निकाल कर मैंने खाली और डांटकर कहा- ख़बरदार जो दोबारा अकेले  खाने की हिम्मत भी की समझे. तब शायद पांचवीं कक्षा में पढ़ते थे हमलोग. बचपन में इतनी समझ नहीं होती. कैसी कैसी अजीब हरक़तें हम कर गुज़रते  हैं... बादवक़्त  सोचने पर बड़ा अजीब सा लगता है, कि क्‍यों ऐसा किया होगा.  कैसे ऐसा कर भी पाए.
और एक बार ऐसे ही लड़ाई की वजह तो याद नहीं, लड़ते हुए मैंने उसे ज़मीन पे गिरा दिया था और उसके पेट पर बैठ गाल जोरों से काट लिया था...दांतों के निशान छप गए थे गाल पर. इसी तरह एक बार हम पढने बैठे थे. तब आठवीं कक्षा में थे हम. मैं  राउंडर से खेल रही थी. उसकी नोक अपनी हथेली पे लगा कर गोल घुमा रही थी.
आदि ने टोका, मत कीजिये ऐसा, लग जाएगी.
मैंने कहा, तुम्हारी तरह नाज़ुक नहीं हूँ  समझे?
शायद उसके अहम् को ठेस पहुंची. उसने कहा,  मैं इतना भी नाज़ुक नहीं हूँ.
मैंने कहा, अच्छा, हाथ दिखाओ.
उसने हाथ आगे कर दिए. मैंने राउंडर की नोक उसकी हथेली पर रख कर थोड़ा दबाया. वो मुस्कुरा रहा था.
मैंने पूछा, दर्द हुआ.
नहीं’, उसने कहा.
मैंने थोड़ा सा और जोर से  गड़ाया और पूछा, अब ?
नहीं’ उसने फिर कहा.
अबकी जो ताक़त लगाई मैंने तो राउंडर उसकी हथेली में चुभ गया,खून निकल आया. मैं डर गई थी बुरी तरह से.
ओह! ख़ून निकल आया आदि... मैं लगभग चीख़ ही पड़ी थी.
मेरा रुआंसा मुंह देखकर उसने कहा, खून निकला ज़रूर है, लेकिन पता नहीं क्यूँ  दर्द हीं हो रहा... सच्ची...
आज याद कर रही हूँ तो पाती हूं कि उसने कभी मुझे इस तरह चोट नहीं हुंचाई..हमेशा मुझसे मार खाता था लेकिन कभी शिकायत नहीं करता था.. 

मैं थी भी बड़ी मनमानी करने वाली. मम्मी-पापा की बड़ी लाड़ली बेटी, और बेटी भी क्या बिलकुल बेटा. पापा हमेशा बेटा जी बुलाते थे. आदि और मैं साथ पढ़ते थे. बड़ी गहरी दोस्ती थी हमारी. हमारे घर से लगा हुआ घर था उन लोगों का. मेरा सारा होमवर्क करना आदि का काम था. होमवर्क ही क्यूँ जो भी मैं कहूँ वो सब. वो तो जैसे मेरी ग़ुलामी करने के लिए ही पैदा हुआ था. बस मेरे आगे पीछे घूमना, जी जान से हर वो काम करना जो मैंने कहा है उसे करने के लिए. माँ पापा और आदि की वजह से ही शायद मुझे बदगुमानी थी कि मैं सिर्फ़ प्यार किए जाने के लिए हूँ. जो मैं चाहूँ हमेशा वही होना चाहिए....मुझे भी उसकी आदत-सी थी. वो मेरे टैडी बियर जैसा था. बहुत प्‍यारा, मेरा अपना... मैं उसे डांटूं, मारूं, खेलूं ... जो जी चाहे करूं... वो प्रतिकार नहीं करता था. उसके साथ मैं बहुत कम्‍फर्टेबल थी, जैसे ख़ुद के साथ. मैं अपनी सारी गलतियाँ उसके सर  मढ़ती, और वो हमेशा मेरी ग़लतियों के लिए डांट भी खाता मगर उफ्फ्फ़ भी न करता. वो क्यूँ ऐसा करता था मैंने कभी नहीं सोचा...उस रात सोचा...कि पहले क्यूँ नही सोचा मैंने.... और सोचते हुए मन भीगने-सा लगा था....


क्लास के लड़कों की शिकायतें मैं उससे किया करती थी. वो तो जैसे मेरा बॉडीगार्ड था. एक बार मुझे याद है अनिल ने मुझे लव लैटर दिया था. उस ज़माने में ये कितनी बड़ी बात होती थी. टीचर को बताऊँ तो सबको पता चल जाएगा और कितनी बेइज्ज़ती होगी सोचकर बहुत परेशान थी. कितनी घबराई थी मैं. क्या करूँ इसका अब. बिना पढ़े ही आदि को दे दी. उसने एक गंभीर दृष्टि मुझपे डाली और कहा- फ़िक्र कीजिये . और उसी दिन शाम को आदि और उसके दोस्तों ने मिलकर अनिल की ख़ूब पिटाई की और अगले दिन स्कूल में उससे माफ़ी मंगवाई. कितनी यादें उन दिनों की एक एक कर रात भर याद आती रहीं.

हम कंबाइंड स्टडी करते थे ट्यूशन टीचर भी एक ही थे . और वो भी बेहद सीधे सादे. पढ़ते वक़्त अगर मैं कभी शैतानी करूँ भी तो भी डांटते नहीं थे. बस इतना ही कहते...अच्छा अब हँसना बंद करो और इधर  ध्यान  दो. वो सात बजे आते थे, नौ बजे तक हमें पढ़ाते थे... फिर परीक्षाएं नज़दीक होने की वजह से  खाना खाकर रात साढ़े ग्‍यारह-बारह बजे तक हम लोग पढ़ते थे.

         हम ग्यारहवीं में पढ़ रहे थे, परीक्षाओं का मौसम था. बोर्ड परीक्षा का बड़ा टेंशन था. परीक्षाओं का मौसम ...यानी ऋतुराज वसंत के आगमन का मौसम. ऋतुराज वसंत आज भी मेरे लिए ल्‍लास और आनंद के साथ-साथ एक अजीब सी दहशत साथ लेकर आते हैं. पत्तों की खडखडाहट के साथ ही पेट में कुछ गोल गोल सा हो जाता है. धडकनें  तेज़  चलने लगतीं हैं आज भी, जब ये मौसम दोहराता है ख़ुद को. परीक्षाओं के समय पता नहीं इतनी नींद क्यूँ आती है. पढाई के लिए सुबह उठने की तुलना में रात में जागना फिर भी आसान ही था. लेकिन  रात ग्यारह बजते  बजते ही मेरा ऊंघना शुरू हो जाता था मेरा . जम्हाई पे जम्हाई आती... नींद गाने के लिए बड़े उपाय किया करती मैं. आदि से कहती- रानी साहिबा के लिए चाय पेश की जाए. चाय या कॉफ़ी के  साथ कभी  सामने गार्डन में टहलती.कभी कहती - आदि अब एक गाना सुन लेते हैं फिर पढ़ेंगे. आँखों में पानी के छींटे मारती...लेकिन नींद जाने का नाम ही लेतीफिर उसे दया जाती मुझ पर तो कहता जाइए सो जाइए अब कल पढ़ेंगे. मैं कहती तुम अकेले पढ़ना, वरना मम्मी मुझे डांटेगी समझे. वो हाँ में सर हिलाता  और घर चला जाता.

ऐसी ही एक रात मैं नींद से बेहाल थी. मैंने कहा सुनो आदि अब मैं देखकर नहीं पढ़ सकती, तुम ज़ोर ज़ोर से बोलो  मैं सुनकर याद करूंगी. उसका बोलना मेरे लिए जैसे लोरी. नींद भगाने के लिए मुंह धोकर आ गई और आदि को चाय बनाने को कहा. वो हमेशा की तरह चला गया चाय बनाने. घर मेरा लेकिन चाय कॉफ़ी बनाना उसका काम था. जब वो लौटा तब तक मैं किताब पर सिर पटक कर सो चुकी थी. उठिए उठिए चाय आ गई, उसकी आवाज़ से मेरी नींद खुली. लाल लाल आँखों में जैसे कंकड़ से गड़ रहे थे. मैं नींद से बेहाल थी. मेरा ये हाल देख कर उस दिन पता नही उसे क्या हुआ, वो अचानक उठकर क़रीब आया और धीरे-से मेरी बांयी गाल पर एक चुम्बन जड़ दिया. जैसे बिजली का एक करेंट सा लगा और दिमाग सुन्न हो गया. सांसें जैसे रूकती-रूकती सी गीं….और फिर धड़कने बेतरतीब हो गईं.. कुछ देर के लिए सबकुछ स्थिर हो गया. गहरा सन्नाटा पसरा था...रात सांय सांय कर रही थी. धड़कनों का शोर बहुत तेज़ सुने दे रहा था…शोर जब कुछ  कम हुआ , मैं सोफ़े से उठी और सीधे पलंग पे औंधे मुंह धड़ाम से जा गिरी, और सिर्फ़ एक ख़याल रह गया कि बाप रे,  ये तो बड़ा ही चरित्रहीन है. ये कतई अच्‍छा इंसान नहीं है. ऐसी अप्रत्‍याशित हरकत पर इस उम्र में सभी लड़कियां शायद इसी तरह क्षुब्‍ध होती हैं। मैं अवाक् और हतप्रभ अपने बिस्‍तर पर पड़ी  रही...लगभग आधे घंटे बाद उसकी  आवाज़ आई...मैं जा रहा हूँ दरवाज़ा बंद कर लीजियेगा.

ज़िन्दगी में पहली बार ऐसा कुछ घटा था ,जो किसी से भी कहा नहीं जा सकता था. मम्मी-पापाजी ने जिस तरह से  पाला  था मुझे , मैं हर बात बेझिझक  उनसे बता सकती थी, लेकिन ये एक ऐसी बात हुई कि जाने क्यूँ लगा कि ये बात किसी से भी बताई नहीं जा सकती. ऐसी बातों को मन छुपाए, इनके  बोझ तले दबा बहुत अकेला हो जाता है मासूम दिल उस उम्र में. एक अजीब अहसास से गुज़र रही थी मैं...सहमा हुआ सा मन..हर वक़्त घबराहट..इक बेचैनी सी..किससे कहूँ..क्या, कैसे कहूँ....किसी से कुछ कह पाने की वजह से  ख़ुद को बहुत अकेला महसूस कर रही थी. मासूम दिल पर बड़ा बुरा असर होता है ऐसी बातों का. मैं तो दिल की हर बात आदि को बताती थी. अब जब उसने ही ऐसा कर दिया तो किससे  क्या कहूँ, समझ नहीं आ रहा था. अजीब वहशत सी होने लगी थी . अगली शाम को वो पढ़ने नहीं आया. दूसरे दिन डांट डपटकर आंटी ने उसे भेजा. मैं डरके उससे छुपती फिरी, पलंग के नीचे, बाथरूम में. एक दिन तो निकल गया अगले दिन मम्मी जी ने उसके सामने ही  मेरी गाल पे तमाचा जड़ दिया, ये कहते हुए कि पढ़ने में मन नहीं लगता तुम्हारा, चलो पढ़ने बैठो. आदि को देखो कितना मन लगाकर पढता है. मैं पढ़ने बैठ तो गई लेकिन  ट्यूशन टीचर की कोई भी बात समझ नहीं आ रही थी. दिमाग में सिर्फ कल रात की बात चल रही थी. टीचर चले गए और जल्दी ही आदि भी. कुछ राहत महसूस हुई. लेकिन, अगले दिन फिर वही शाम. लगता था ये शाम क्यूँ होती है आख़िर. तीन दिन हो गए थे  एक लफ्ज़ भी बात नहीं कि थी हमने. ये पहली बार था जब इस तरह हमारी बात बंद हो गई थी. हम चुपचाप किताबें घूरते रहते थे. आते जाते बड़ों की हिदायत मिलती रहतीं परीक्षाएं नज़दीक हैं मन लगाकर पढो. आदि का तो नहीं पता,  लेकिन मेरे लिए बहुत बोझिल था. मैं सिर्फ़ यह सोच रही थी कि कैसे छुटकारा पाऊँ इससे. जिस पर इतनी हुकूमत करती थी, गुलाम से ज़्यादा कुछ नहीं समझती थी, उससे कितना डर लगने लगा था मुझे. अचानक कितना अजनबी सा लगने लगा था वो.

रात के लगभग साढ़े ग्यारह बजे  रहे होंगे. मेरी आँखों में नींद का नामोनिशान न था. कमरे में बिलकुल चुप्पी थी, अचानक वो सोफ़े से उठा. मेरा दिल ज़ोर से धड़का, मैं डर कर खड़ी हो गई. वो मेरी तरफ एक क़दम आया, मैं दो क़दम पीछे गई और दीवार से जा लगी. बहुत ज्‍यादा डरी हुई थी. सोच रही थी, हे भगवान्, अब क्या करेगा ये... क्‍या फिर वैसा ही कुछ...? एक सैकंड में दिमाग में कितनी सारी बातें आ जाती हैं... डर के कारण जैसे जान निकली जा रही थी. वो और पास आया...रफ़्तार तेज़ हुई धड़कनों की, आवाज़ घुट के रह  गई थी...  धडकनें  थमतीं  कि मैंने अपने पांवों पर उसके हाथों का स्पर्श  महसूस किया. वो मेरे पैरों को पकड़े रो रहा था. रोता हुआ कह रहा था, मुझसे ग़लती हो गई, मुझे माफ़ कर दीजिये प्लीज़. आप मुझसे बात नहीं करेंगी तो मैं मर जाऊँगा. आप नहीं बोलेंगी तो मैं जी नहीं पाऊंगा. मुझे नहीं पता ये कैसे हुआ मुझसे. बस एक बार माफ़ कर दीजिये प्लीज़. अब मैं कभी ऐसा नहीं करूंगा ...आप जो चाहें सजा दें, लेकिन प्लीज़ बोलिए मुझसे. बात कीजिये मुझसे....
वो रोता जा रहा था और बोलता जा रहा था.... और अचानक मैंने महसूस किया  कि  जैसे मेरा सारा डर गायब सा हो गया था.. तीन दिनों से कितना भार था मन पर…एक ही पल में जैसे  जैसे सारा बोझ उतर गया . इक अजीब सी राहत महसूस की दिल ने. सबकुछ पहले जैसा लगने लगा. मुझे लगा ये जो पैरों पर गिरकर रो रहा है, ये तो वही आदि है. इससे डरने की कोई ज़रुरत नहीं. ये बुरा नहीं है ये तो दोस्‍त आदि ही है...और फिर दिल से सारा डर निकल गया. मैंने  लगभग डांटते हुए कहा ठीक है ठीक है...अब रोना बंद करो और घर जाओ...

एक शांत गहरी कुछ उदास सी सांस लेकर यादों के गलियारे से वापस लौटी मैं.
ओह! तो इसलिए आज उसने कहा कि वो पहले भी मेरे पाँव छू चुका है...
सब याद करते हुए मन बड़ा अजीब सा हो गया था. इतने सालों बाद भी उसे ये बात याद रही. ओह! मैं भी कितनी खुदगर्ज़ थी. उन दिनों में कभी...एक बार भी उसकी तकलीफ़ के बारे में नहीं सोचा. गलती हो जाने का  का अहसास... मुझे हमेशा के लिए खो देने का डर.. उफ्फ्फ..कितने दर्द से गुज़रा होगा वो. और आज भी ये बात कहते हुए उदासी उसकी छुप नहीं सकी थी... और आज तक हर बात इतनी शिद्दत से अपनी यादों में संजो कर रखी हैं उसने.... ये सब सोचते-सोचते रात के बारह बजने लगे थे...आज फिर आँखों में नींद का नामोनिशान था.  सांस उस तरह रही थी जैसे जी भर रो चुकने के बाद आती है. ज़्यादा देर तक सोचने की वजह से शायद.कबारगी यूँ लगा कि जैसे किसी बच्चे  को कोई अनमोल चीज़ मिली और खो भी गई.. और उस मासूम को इसका इल्म तक हुआ. जीवन में प्रेम भी कितने अद्भुत ढंग से प्रगट होता है... कभी भी...कहीं भी. यही सब सोचते सोचते पता नहीं फिर   कब नींद आ गई.