काश...!
जब मैं रोती...
जब फूट पड़ती भीतर
वर्षा वन की बदली
सैलाब से जज़्बात के
होठों पर चुप सी
अलफ़ाज़ सारे
आँखों से बह निकलते
तुम होठों से पढ़ते
जब मैं रोती...
जब फूट पड़ती भीतर
वर्षा वन की बदली
सैलाब से जज़्बात के
होठों पर चुप सी
अलफ़ाज़ सारे
आँखों से बह निकलते
तुम होठों से पढ़ते
ठंडा मुलायम स्पर्श तुम्हारा
राहत देता...समेट लेता
तपते गालों पर फ़ना हुए आंसुओं को
लेकिन ऐन रुलाई के वक़्त
तुम तो गुस्से से एक तर्जनी दिखाते हो
चुप्प्प...बिलकुल चुप कहते हुए
खबरदार करते हुए कि
एक बूँद भी आंसू टपकाया तो...
कातर आंसू तो ठिठक जाते हैं
मगर सिसकियाँ नहीं थमतीं
हिचकियों में तब्दील हो जातीं हैं
यूँ तो मुझे पता है
रोता हुआ नहीं देख पाते मुझे तुम
लेकिन कभी तो...
कभी तो यूँ भी हो कि
जब मैं रोऊँ...काश...
तुम्हारा पूरा वजूद
रुमाल बन जाए
इत्ती छोटी सी तो तमन्ना है...
राहत देता...समेट लेता
तपते गालों पर फ़ना हुए आंसुओं को
लेकिन ऐन रुलाई के वक़्त
तुम तो गुस्से से एक तर्जनी दिखाते हो
चुप्प्प...बिलकुल चुप कहते हुए
खबरदार करते हुए कि
एक बूँद भी आंसू टपकाया तो...
कातर आंसू तो ठिठक जाते हैं
मगर सिसकियाँ नहीं थमतीं
हिचकियों में तब्दील हो जातीं हैं
यूँ तो मुझे पता है
रोता हुआ नहीं देख पाते मुझे तुम
लेकिन कभी तो...
कभी तो यूँ भी हो कि
जब मैं रोऊँ...काश...
तुम्हारा पूरा वजूद
रुमाल बन जाए
इत्ती छोटी सी तो तमन्ना है...
No comments:
Post a Comment