Tuesday, May 21, 2013

- आओ कभी यूँ भी मेरे पास के.....आने में लम्हा और जाने में ज़िन्दगी गुज़र जाए.....

- ऐसे मौसम में यूँ जुदा रहना........कुफ़्र है और कुछ नहीं साहिब !

( हमारी तरफ बिन मौसम बादलों ने मौसम ख़ुशगवार कर दिया है...:))


लफ़्ज़ों का ताना-बाना बुनने वाला जुलाहा सारी उम्र ख़्वाब बुनता रहा...और खुद किसी का ख़्वाब न बना...

-अमृता प्रीतम ....साहिर के लिए-


- अच्छे लोगों को तो सभी पसंद करते हैं....है कोई तलब'गार के बहुत बुरे हैं हम....
तुम्हें यूँ मजबूर देखना अच्छा नहीं लगता
यूँ पलकें बार-बार झपकाना अच्छा नहीं लगता
जुड़ाव कोशिशों से नहीं हो सकता
फिरभी तुम्हारा मेरी कोशिशों पर
आँख मूँद लेना अच्छा नहीं लगता...
सुकून का एक लम्हा भी मयस्सर नहीं....,
मुहब्बत को सुलाते हैं तो यादें जाग जाती हैं
मुसलसल गुज़रती ज़िन्दगी
और रफ़्तार उसकी
यादों में उभरते हैं कभी-कभी
अतीत के कुछ मिटे मिटे से चित्र
एक काफिला सा रुकता है आके
आरज़ूओं के मरुस्थल में
शायद अनजाने ही
इन धुंधली मिटती यादों के बीच
कोई ख्‍वाहिश हमेशा
अपनी जगह कायम रहती है ताउम्र...
मौसम-ए-गुल में ख़ैर हो दिल की....दर्द उगते हैं इन महीनों में....

बे-क़रार बातें...


ख़लाओं में भटकती सी
बातें बे-क़रार हैं
सुने जाने के इंतज़ार में
यूँ नहीं है कि सुनते नहीं हो तुम
बेशक़ सुनते हो लेकिन आँखों से नहीं सुनते
किसी और दुनिया में हो तुम जैसे
और सब कुछ कहकर भी
बाक़ी रह जाता है हलक में बहुत कुछ
सुन लो ना वो सारी अनर्गल बातें
और यूँ सुनो कि क़रार पा जाएं
बे-क़रार बातें
जैसे समंदर सुनता है
चांद की सदाएं
और चांद रात को आता है
दोनों को क़रार

साझा सन्देश...

साझा सन्देश...

ये कविता बे-रंग ही होती
जो यूँ न रूठते तुम
और दिल महसूस न करता कि
तुम क्या हो मेरे लिए
क्या ये संभव है कि
लिखा जाए इक साझा सन्देश
इक पाती, इस रिश्ते के नाम
और पढ़के उसे
दोनों रोएँ थोड़ी-थोड़ी देर ...
इश्क़ की बनियागिरी ...

''हर बात पे रंजिशें हर बात पे हिसाब
गोया हमने इश्क़ नहीं नौकरी कर ली ''

* सन्डे स्पेशल !:))))

प्रतिस्पर्धा...

प्रतिस्पर्धा...
कहते हैं इसी का ज़माना है...
ये जितनी विकास के लिये आवश्यक है...उतनी ही कष्टकर भी है...
जाने क्यूँ हमें अच्छी नहीं लगती...
शायद इसलिए कि दो अलहदा चीज़ों की तुलना संभव ही नहीं
अब गुलाब की कमल के फूल से कैसी तुलना भला...??
हाँ खुद से खुद की तुलना संभव है...बेहतरी के लिए खुद की खुद से स्पर्धा होनी चाहिए...
क्यूंकि हर इक शै इस दुनिया की इक दूसरे से अलग है....यूनीक है...अनन्य है....
कम अस कम इस एक बात पर हर कोई खुद पर फ़क्र कर सकता है कि
उस जैसा इस पूरी दुनिया में और कोई भी नहीं है...
क्या कहें....बस इतना ही कि
सफल होने की बजाय श्रेष्ठ होने की कोशिश हो...

*( इतनी उहापोह इसलिए है कि संगीत के एक कार्यक्रम में जजमेंट के लिए जाना है...बड़ी कठिन स्थिति है ...हम जजमेंट करने में हर बार यूँ ही हैरान होते हैं .....)
- आज भी रखे हैं पछतावे की आलमारी में....इक दो वादे जो दोनों से निबाहे न गए.....

- तुझे औरों की भी ज़रुरत है.....मुझे एहसास क्यूँ नहीं होता....

चले आओ कि फिर से अजनबी होकर मिलें ,
तुम मेरा नाम पूछो , मैं तुम्हारा हाल पूछूं !:)


- यूँ तंग ना किया करो
यह सब कहने के लिए है
जानते हो तुम भी
जानती हूँ मैं भी..

भला तुमसे तंग हुई हूँ मैं कभी..?

साँसें बस में नहीं रहीं
तो बस
यूं ही कह दिया..!!



'' नींदों के एहसान उठाए ,
फिर भी तेरे ख़्वाब न आए ''




' दर्द के मुरीद थे हम....मुहब्बत न करते तो क्या करते...'
रखकर मेरी आँखों पे अपने हाथ.....इक ख्वाब का महूरत कर दो ......शब-ब-ख़ैर !:)
कल रात जब सितारे उड़ रहे थे हवा के साथ......हमने भी इक बात कर ली खुदा के साथ !:))
कोई रूठता ही इसलिए है ना कि मना ले कोई ??
लेकिन, कोई इसलिए ही रूठा हो कि मनाता ही नहीं कोई...तो ??

'' सौ बार अगर तुम रूठ गए, हम तुमको मना ही लेते थे ,
इक बार अगर हम रूठ गए,तुम हमको मनाना क्या जानों ''
इस दिल का उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़ अब मैं क्या करूँ......??

चेहरे पे जिसके हैं सभी झूठ की तहरीरें.....दिल उसी शक्स के वादों से बहलता क्यूँ है....??

( मेरा दिल कहे कहीं ये न हो....नहीं ये न हो....नहीं ये न हो....)
प्रेम में डूबी लड़कियों के गले पर स्पर्श करोगे, तो पाओगे, अंदर कांटे भरे हैं। गुलाब के डंठल की तरह। ये रुलाहट को रोकने की कोशिश में उगने वाले कांटे होते हैं।

- गीत चतुर्वेदी -


--और प्रेम में डूबी लड़कियों के अनाहत पर स्पर्श करोगे, तो पाओगे की अन्दर पत्थर भरे हैं जो दिल में करवट लेती टीस को भीतर ही दबाने के लिए होते हैं...
उनके तगाफुल पे न कर शिकवा ऐ दिल......दोस्तों को बड़े इख्तियारात होते हैं......
यूँ पलकें मूँद लेने से नींद नहीं आती....सोते वो लोग हैं जिनके लिए कोई जाग रहा हो...शुभ-रात्रि !:)
मुख़्तसर ये के अच्छे लगते हो......वजह ये के वजह मालूम नहीं......
जुगनू जो कहते हैं वृक्षों से लिपट कर ,
गाँव के सुनसान रास्तों को गले लगा जो कहती है चांदनी ,
टिमटिमाते तारों से जो कहता है आकाश...
उसे समझने के लिए लिए किसी भाषा ज्ञान की ज़रुरत कहाँ है भला??

मुझे नही आती आकाश की भाषा ...लेकिन,
दिल महसूस करता है उस अनजानी भाषा में कही हुई हर बात...

(मित्र नित्यानंद जी की कविता पर टिप्पणी )

वो तुम्हारी बात जहाँ दिल में बैठ जाती हैं.....बस वही कोना दिल का हमें भला लगता है.....
- ये काफी नहीं कि हम दुश्मन नहीं.......वफादारी का दावा क्यूँ करें हम........??

- थोड़े तुममे हम रह जाएं....थोड़े हममे तुम रह जाना.....शुभ-रात्रि !:)
उससे कह दे कोई नज़र आकर अज़ीयत मुख़्तसर कर दे....
कितनी दफ़े हुआ ऐसा कि तुम नहीं मिले काफी दिनों तक ....हम यादों को हाथ पकड़ कर बुला लाते पास अपने ...मन पूछा करता मिलोगे तो क्या क्या बताएँगे तुम्हें ...?
याद है हमें ....तुम भीगे मन से किस तरह सुना करते थे बातें मन की ...जो रो रो कर हम सुनाया करते ...
अबकी मिलोगे तो ....तो कोई ऐसी बात सुनाएंगे जिसे सुनकर तुम मुस्कुराओ ....और बस मुस्कुराते जाओ ...और हम यूँ ही निहारते हुए तुम्हें..............................................................हह..


( * लिखी जा रही कहानी का अंश )
'' जाने किस रंग से रूठेगी तबीयत उसकी
जाने अब किस ढंग से उसको मनाना होगा ''

तुमसे ग़र रूठ जाए कोई....तुम भला किस तरह मनाओगे ??
क्यों हर बात इस इंतज़ार में रहती है कि तुम सुन लो जो ज़रूरी नहीं है तुम्हारे लिए ...
तुम वहाँ होते ही नहीं हो जहां दिखते हो...
तुमने क्यूँ खुद को छुपा रक्खा है कि किसी भी तरह तुम तक पहुंचा नहीं जा सकता...
लेकिन, ऐसे में भी तुम दूर नहीं लगते हो...
सफ़र की वीरानगी ओढ़े हुए न जाने क्या तलाश करते क़दम चल रहे थे ...न साथ की चाहत थी न मंज़िल की तिश्नगी ....बात थी इक सांस की जो लिए जा रहे थे....साया सा कोई एहसास जो साथ चल रहा था...आँखें थीं उसकी मुन्तज़िर ....दिल यकीन से भरा हुआ....साथ होने के जज़्बे से क़दम मिल रहे थे ....चेहरे में उसके इक अपनी सी बेगानगी थी ....साथ इक अजनबी के हम अपनी ज़िन्दगी से मिल रहे थे...

दरअसल तस्वीरें सांस लेतीं हैं लम्हे ज़िंदा रखने को...

कुछ चेहरे तस्वीरें बने सामने पड़े थे ... आवाजें सुनने की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.... दिल इस सोच में रहा करता कि कैसे बुलाएं आवाज़ों को.... कभी आवाज़ें होती ...तो चेहरे नहीं होते और चेहरे होते तो आवाज़ें खो जाती....कशमकश में ही थे कि ....तस्वीर ने हमारा नाम लेकर पुकारा.....:)) :))

''मन हर वक़्त किसी न किसी खुशबू के साथ रहा करता है...''



मैसूर संदल सोप...इस साबुन की खुशबू के साथ स्कूल की रोड पर लैंटाना घास की खुशबू का मिश्रण याद है, जो गीदम ( बस्तर का एक गाँव ) की याद दिलाता है ....जब -सुबह सवेरे नहा धोकर पापाजी की मोटरसायकल में बैठ कर स्कूल जाया करते थे...आज भी कभी-कभी सुबह सात बजे के आस-पास बरबस ही वो खुशबू याद आ जाया करती है...

फरसगांव में घर से लगा हुआ घना जंगल था ....उस जंगल की अजब सी खुशबू ...और ख़ास ये कि दिन के वक़्त वो जंगल जितना खूबसूरत लगा करता ....रात होते होते उतना ज्यादा डरावना हो जाया करता ...और रात को वो खुशबू भी कुछ गुनगुनी सी हो जाया करती ....याद करके अब भी दिल धड़क जाता है....

पहली बार किसी विदेशी महिला को देखा था ...उसके परफ्यूम की खुशबू भी अब तक है ज़ेहन में ....

पापाजी की म्यूज़िक लाइब्रेरी की खुशबू तो अद्भुत है....बहुत गहरी खुशबू है...

सारे एल पी / ई पी की तस्वीरें तक याद हैं ....याद है किस रिकॉर्ड के बीच में ...किसी में लाल रंग था ...किसी में बैगनी ...किसी में काला...

और किताबों की खुशबू ....आह!

हर किताब की अलहदा खुशबू ....स्कूल बुक्स की अलग ...कॉमिक्स की अलग ...हर किताब को छूने का एहसास अलग ....मन डूब-डूब जाता है इन खुशबुओं में...

कुछ आवाज़ों की खुशबुएँ क़ैद हैं ज़ेहन में....और कुछ रंगों की भी....हर आवाज़ की अलग ...हर रंग की अलग खुशबू ....

ऐसी ही जाने कितनी खुशबुओं से घिरा रहता है मन....इन खुशबुओं से बड़ा प्यार है हमें ....बहुत प्यार....इन ख़ुशबुओं का हमारे बचपन की यादों से बड़ा गहरा सम्बन्ध है...

ख्यालों की दुनिया

ख्यालों की दुनिया
नज़र नवाज़ नज़ारों की दुनिया
हक़ीक़त के कितने क़रीब...लेकिन कितनी दूर
इक ज़रा हाथ बढ़ाया और चाँद बांहों में
और कहीं ख्यालों में ही बिछड़ जाए कोई
तो जैसे जान ही लेकर जाए