सफ़र
की वीरानगी ओढ़े हुए न जाने क्या तलाश करते क़दम चल रहे थे ...न साथ की चाहत
थी न मंज़िल की तिश्नगी ....बात थी इक सांस की जो लिए जा रहे थे....साया सा
कोई एहसास जो साथ चल रहा था...आँखें थीं उसकी मुन्तज़िर ....दिल यकीन से भरा
हुआ....साथ होने के जज़्बे से क़दम मिल रहे थे ....चेहरे में उसके इक अपनी
सी बेगानगी थी ....साथ इक अजनबी के हम अपनी ज़िन्दगी से मिल रहे थे...
No comments:
Post a Comment