Tuesday, May 21, 2013

प्रतिस्पर्धा...

प्रतिस्पर्धा...
कहते हैं इसी का ज़माना है...
ये जितनी विकास के लिये आवश्यक है...उतनी ही कष्टकर भी है...
जाने क्यूँ हमें अच्छी नहीं लगती...
शायद इसलिए कि दो अलहदा चीज़ों की तुलना संभव ही नहीं
अब गुलाब की कमल के फूल से कैसी तुलना भला...??
हाँ खुद से खुद की तुलना संभव है...बेहतरी के लिए खुद की खुद से स्पर्धा होनी चाहिए...
क्यूंकि हर इक शै इस दुनिया की इक दूसरे से अलग है....यूनीक है...अनन्य है....
कम अस कम इस एक बात पर हर कोई खुद पर फ़क्र कर सकता है कि
उस जैसा इस पूरी दुनिया में और कोई भी नहीं है...
क्या कहें....बस इतना ही कि
सफल होने की बजाय श्रेष्ठ होने की कोशिश हो...

*( इतनी उहापोह इसलिए है कि संगीत के एक कार्यक्रम में जजमेंट के लिए जाना है...बड़ी कठिन स्थिति है ...हम जजमेंट करने में हर बार यूँ ही हैरान होते हैं .....)

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