Monday, October 29, 2012

पारदर्शी....पर्दा



तुम्हारी ये तस्वीर
जिसमे मुंह फेर के खड़े हो तुम
यूँ तो बारहा गुज़री है मेरी निगाहों से
बाज़वक़्त ना जाने क्यूँ
उस पर अटक अटक जाती है निगाह


इसमें चश्मे के भीतर से

झांकती आँखें
एक पर्दा है तुम्हारे मेरे बीच,पारदर्शी |
इस परदे से गुरेज़ नहीं
शिकायत तो उन आँखों से है
जो परदे का सहारा ले
तकती हैं कहीं दूर.......बहुत दूर

सच बताना इन आँखों में क्या है ??
चलो झूठ ही कह दो
के मेरी कोई तस्वीर है
जो ठीक इसी तरह बिंध गयी है...

Monday, October 22, 2012

छोssssटा सा वो इक पल...

छोssssटा सा वो इक पल...
तुमने नज़र भर देखा
स्नेह से सिर सहला दिया
और तुम्हारी प्रेमिल पनीली आँखों का इक मोती
मेरे गालों पर ढुलक आया है...

सिर्फ़ उलाहनों को क्या ??

बहुत हुआ
चलो अब यूँ कर लें
कहानी ज़रा मुख़्तसर कर लें
उलाहने लपेटकर कही बातों की
सलवटें ठीक कर लें

आओ कि शाम ने
सुबह से ही उदासी की दस्तक दी थी कई बार
इस बुझे मन से कि कोई
तुम्हें याद करता है सिर्फ़ उलाहनों को क्या ?

बस यूँ समझ लो
आज रात चाँद देखकर
दिल मुस्कुराना चाहता है
गुज़िश्ता मौसमों ने
चाहे लाख ख़ताएं कीं
दरख्तों को बारिशों में भीगना
अच्छा लगता है

Sunday, October 21, 2012

ये चाँद..

बेक़रार रातों का साथी है वो,
राज़दार है दिल के अरमानों का,
ये चाँद नहीं है, फ़रिश्ता है कोई,
गवाह है जो सदियों से,
उल्फ़त के फ़सानों का,
वो दोस्त है...हमदर्द है...दिलनवाज़ है वो,
वो हमसाया है...हमसफ़र है...हमराज़ है वो ''

 ( इक पुरानी पोस्ट )

Saturday, October 13, 2012

ओ! ज़िद्दी मासूम सी लड़की...

ओ! ज़िद्दी मासूम सी लड़की
क्या फिर पुकारा मुझको ?
पुकारा...या धमकाया...डराया मुझको
सर्दी से सुड़कती नाक
और पनीली आँखों को चमकाकर
एक अदृश्य गन पॉइंट मेरे पीछे टिकाकर

लगातार देती हो आदेश
ये करो..वो करो..अरे! अरे! ऐसे नहीं...वैसे
नहीं तो समझ लो
जी है ज़िन्दगी अपनी शर्तों पे अब तक
तुम कहाँ से ऐसे -
महीन अक्षरों वाली चेतावनी सी
मेरे मन में सितारा सी चमकती हो...

Thursday, October 11, 2012

एक भी दिन....तुम बिन...



दिन ढला ऐसे
सांझ उतरी हो मन में जैसे
थककर नाराज़ मन भी
शिकायती हो गया

गहराती रात के साथ
शिकायतें भी
होने लगीं उदास

ढल चुकी है रात
आँखों से टपकती हुई
याचना लिए होठों पर
बची है सिर्फ़ बेबसी

देखा ना...जिया नहीं जाता
एक भी दिन...तुम बिन

Wednesday, October 10, 2012

रात आधी...

नींद की सेज़ पे ख्वाब तेरे
रात भर करवटे बदलते रहे
नजरें आसमां में अक्स बनाती रही
तारे ज़मीन पे बरसते रहे

Tuesday, October 9, 2012

आधी रात......पूरा चाँद....

वो लम्हा ..जब तुम पास थे
मेरी आँखों के दरिया का बांध
तुम्हारे कंधे पर टूट- टूट गया था
तुम्हारा मुझे थामना एक बारिश का ...
उस बांध में फिर- फिर भर जाना था
या टूटी दरार पर तुम्हारा खुद सिमट जाना था
पता नहीं .....
हाँ ! ये पता है एक धड़कन का आरोह

दूसरी के अवरोह से यूँ मिलता था ...
जैसे एक घाटी मिलती है हिम शिखर से
एक दिन तुमने कहा था न , देखो !.....
कैसे ये पूरा चाँद ...थपकियाँ देता है , समंदर को
मैंने चाँद को नहीं, तुम्हे ..निहारा था
आज ...फिर फूटा है , सैलाब
वही आधी रात और ...पूरा चाँद है
तुम नहीं हो ....

Sunday, October 7, 2012

आत्मीय क्षणों में

आत्मीय क्षणों में बातें करते-करते
अचानक तुम मीटिंग में चले गए,
और मैं आटा गूंथने लगी...
अब तुम मीटिंग में हो ऑफिस में
मैं रोटियाँ बना रही हूँ किचन में
तुम्हारी मीटिंग भी
बेनतीजा ही रहने वाली है
रोटियाँ  गोल नहीं बन रही
न ही फूल रही है
हम अब भी बातें कर रहे हैं
उतनी ही आत्मीयता से....