Monday, October 29, 2012

पारदर्शी....पर्दा



तुम्हारी ये तस्वीर
जिसमे मुंह फेर के खड़े हो तुम
यूँ तो बारहा गुज़री है मेरी निगाहों से
बाज़वक़्त ना जाने क्यूँ
उस पर अटक अटक जाती है निगाह


इसमें चश्मे के भीतर से

झांकती आँखें
एक पर्दा है तुम्हारे मेरे बीच,पारदर्शी |
इस परदे से गुरेज़ नहीं
शिकायत तो उन आँखों से है
जो परदे का सहारा ले
तकती हैं कहीं दूर.......बहुत दूर

सच बताना इन आँखों में क्या है ??
चलो झूठ ही कह दो
के मेरी कोई तस्वीर है
जो ठीक इसी तरह बिंध गयी है...

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