Monday, November 5, 2012

अतिरेक

बहुत दूर तक पीछा करती है
इक आवाज़
शायद तुमने पुकारा मुझको
बेतहाशा दौड़ता है मुन्तज़िर दिल तुम तक
मगर तुम शांत खड़े हो.....अविचलित !

यूँ तो तुम्हारा सहज स्वीकार भाव छू जाता है मन को
तुम कभी प्रतिकार नहीं करते
सिर्फ हाँ कहते हो हर बात पर
लेकिन आज मासूम शिकायत है मन की

कि आज तक....कभी, कोई शुरुआत क्यों नहीं की तुमने ?
रहते हो क्यों हमेशा यूँ ही शांत....निर्विकार !

तुमने कहा हम प्रेम में हैं
लेकिन हमेशा बेतलब ही देखा तुम्हें
कहीं कोई भावातिरेक नहीं
यूं बिना अतिरेक भी प्रेम में हुआ जा सकता है....अविचलित !?

वैसे ये भी क्या कम है कि
खुद को प्यार किये जाने की इजाज़त दी है तुमने
रोका नहीं कभी
लेकिन जानते हो
तुम्हारी इस स्थिरता ने
अस्थिर कर दिया है मन
तुम्हारे इस अविचलन ने
कर दिया है बहुत विचलित !

(दिल नाउम्मीद तो नहीं......)

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