Tuesday, October 9, 2012

आधी रात......पूरा चाँद....

वो लम्हा ..जब तुम पास थे
मेरी आँखों के दरिया का बांध
तुम्हारे कंधे पर टूट- टूट गया था
तुम्हारा मुझे थामना एक बारिश का ...
उस बांध में फिर- फिर भर जाना था
या टूटी दरार पर तुम्हारा खुद सिमट जाना था
पता नहीं .....
हाँ ! ये पता है एक धड़कन का आरोह

दूसरी के अवरोह से यूँ मिलता था ...
जैसे एक घाटी मिलती है हिम शिखर से
एक दिन तुमने कहा था न , देखो !.....
कैसे ये पूरा चाँद ...थपकियाँ देता है , समंदर को
मैंने चाँद को नहीं, तुम्हे ..निहारा था
आज ...फिर फूटा है , सैलाब
वही आधी रात और ...पूरा चाँद है
तुम नहीं हो ....

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