Sunday, August 12, 2012

 अनदेखी...अनजानी सी
वो ख़ुशबू बहुत जानी पहचानी सी
किसी बियाबान में चलते
महके रातरानी सी

सागर सा अथाह और
पहाड़ी झरने सी उच्‍छृंखल खिलखिलाहट का
अप्रतिम मेल !
विस्मय भी होता है...मान भी
और इस पर उसकी सहजता
अद्भुत !
मुग्ध करती मुझे वो दूर सितारों से आती
आवाज़ या कि दिव्य पुकार
बुलाती है बार-बार
अपने पास और पास

अनजाना ये बंधन दो रूहों का
खींचता है मुझे अनायास
जैसे सृष्टि में कोई सितारा खींचता है
अपने ही पड़ोसी किसी तारे को
उसी तिलस्‍मी तारे की तरह

खिंचती ही चली जाती हूँ मैं
उस अदृश्य डोर से बंधी
बेबस....अवश !

4 comments:

  1. अनजाना ये बंधन दो रूहों का
    खींचता है मुझे अनायास....

    अनीता जी, कभी कभी प्रतिक्रिया के लिए शब्द छोटे पड़ जाते है.. जरा सी आंख बंद क्या की, आपकी कविता फिल्म बन कर मन के रुपहले परदे पर चल पड़ी.. आपके लिए बहुत सारा सम्मान, राज की तरफ से..

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  2. बड़े मन से ये पूरी कविता पढ़कर टिप्पणी की आपने...विशुद्ध वो भाव आपका बिल्कुल उसी तरह पहुँच गया हमतक...तहे दिल से शुक्रिया आपका..:)

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  3. अप्रतिम ...शालीन...सुमधुर ...
    जैसे कोई किसी ताल के किनारे बैठ कर
    सुनसान..एकांत में ....
    एक तिनका हाथ में लेकर
    नीरव शांत जल को मथ
    स्वयं से बात करता हो और सृष्टि की रोमांचकारी
    अनुभूति पर ...
    विस्मय हो रहा हो ...

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  4. आपने इतने ध्यान से महसूस कर कविता पढ़ी...और इतनी सुन्दर प्रतिक्रिया लिखी...बहुत आभार आपका भुवन जी...:)

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