Friday, January 11, 2013

इक ख़ामोश चीख...

लगभग चीखती-सी
दिल को चीरती हुई
तुम्हारी वो अनकही
सुनी मैंने अभी-अभी
लेकिन जाने कैसा शोर बरपा है
इन दिनों हर तरफ ?
भीतर-बाहर का मौसम बड़ा सर्द है
कि तुम्हारी अबोली बातें
न सुन सका दिल
उफ्फ्फ़...कितने उदास
कितने हताश हुए होगे तुम
चीखने से ठीक पहले
कितना तड़पे होगे
जानते हो
अनजाने ही हुआ सब
कभी होता भी तो है कि
हम सुनने की हालत में
लिसनिंग मोड में नहीं होते
अब सुन ली है दिल ने
वो अनकही सदा तुम्हारी
अबोले की गलतफहमियां नहीं होंगी
इतना तो यकीन है ही
और यूँ भी अस्फुट स्वरों में
बिना कुछ कहे
जैसे दूर बैठे बतियाते हैं
हमेशा बतियाते रहेंगे हम !

4 comments:

  1. भावों का आवेग समझ में आता है..!

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    1. जी शुक्रिया सुरेन्द्र जी !

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  2. आज देखा blog....
    जाने कैसे अनदेखा रहा...(रचनाएं तो पढ़ती हूँ मगर यहाँ पहली बार आना हुआ.)
    सुन्दर रचना .

    अनु

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  3. बहुत शुक्रिया अनु !
    वैसे हम ''हमनाम'' भी हैं
    अच्छा लगा आप आईं !:)

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