Tuesday, June 19, 2012


इस कायनात पर ये चम्पई धूप रोज़ बरसती है, पूरब की हथेलियों पर सुर्ख रंग यूँ छलकता है कि जैसे इस नए सूरज को ओक में भर लिया हो उसने...
कभी गर्मियों की अलसाई सी पुरवाई...कभी ठण्ड की थरथराती सी सुबह...तो कभी बारिश की रिमझिम...
सुर वही, साज़ों पर चलती हुई आवाज़ वही...हाँ ! वही रंग है महकी हुई ख़ुशबू भी वही...
लेकिन एक सुर और भी है अनजाना..अनसुना सा...
किसी आवाज़ के परदे में छुपा वो है ''ख़ामोशी का सुर ''...
मुसलसल चलते वक़्त के साथ ज़िन्दगी एक लम्हा भी ऐसा चुरा नहीं पाती...कि वो सुर सुना जा सके...!
एक लम्हा...जो इंसानियत की तलाश में, बेनूर होती आँखों का दर्द पढ़ सके... !
इक लम्हा जो सपाट चेहरों के बीच, अपनों की तलाश करते दिल पर, हाथ धर सके... !
बेशुमार लोगों के हुजूम में भी...तन्हाई का सुर... !
ज़ीस्त के सख्त और नाज़ुक तेवर पर, सहमते लरज़ते जज़्बात का सुर !
जो कहा जा रहा है...सुना ही जाता है , लेकिन उस सुर का क्या जो, ख़ामोशी की शक्ल में चीखता है...सुने जाने की आस लिए...?
क्यूँ एहसासों के सीने ठन्डे हैं...? क्यूँ इंसानियत के चेहरे चुप हैं...?
दफ़्न हैं सारी आहटें इस शोर-ओ-गुल में !
हर ज़ेहन, हर दिल पे जैसे,ताले पड़ चुके हैं, चुप के !
सुनकर भी उस ख़ामोशी को अनसुना करने का रिवाज !
समझकर भी उसे न समझने का फ़लसफ़ा आम हो चला है...
उस ख़ामोश सुर में जमा लम्हे, हौले से यही कहते हैं...कि यही रवायत है, यही दस्तूर है...ज़िन्दगी ,अब यूँ ही हो चली है...
ज़िन्दगी का चेहरा छाँव सा हो गया है...धुंधला !
एहसास और जज़्बात वीरान हवेली में, सूखे पत्तों के बीच बैठे ऊंघते हैं...किसी को ज़रुरत नहीं उनकी...न उनके मानी रह गए हैं...न कोई अर्थ है शेष उनका...
लेकिन फिर भी...आज भी कभी-कभी ,बेमानी होकर भी, इस हुजूम में ,ख़ामोशी का वो सुर गूँज उठता है...
तो क्यूँ न...रेशा रेशा होकर बिखरी संवेदनाएं जमा कि जाएँ...
चेहरा ज़िन्दगी का , जिसमे कालिख सी कुछ आ चली है,साफ़ कर दें...या गढ़ें एक नया चेहरा ज़िन्दगी का...जो रौशन हो इंसानियत से !
और, ज़िन्दगी के शोर-ओ-गुल से भरे दिल का हिस्सा ख़ाली कर दें ,उस ख़ामोशी के सुर के लिए...
ताकि छू सकें उस ख़ामोशी को हम...सुन सकें गहराई उसकी...महसूस कर सकें हम भी इंसानियत को...!!! सुप्रभात !!!


- अनिता सिंह

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