Wednesday, June 27, 2012

पाँव छू लेने दो...


 जब ज़िन्दगी के मायने नहीं पता होते, तब भी कोई ज़िन्दगी का हिस्सा होता है..ज़िन्दगी होता है. जब हमें रिश्तों की अहमियत नहीं पता होती, तब भी कोई रिश्ता होता है जो हमें एक अलग अंदाज़ में संवारता रहता है..निखारता रहता है. कभी-कभी हमें ये एहसास ही नहीं हो  पाता कि हम क्या कुछ खो रहे हैं. बहुत अहम् रिश्तों के होने का कई बार दिल को एहसास ही नहीं होता..कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो बिना अपना महत्व दिखाए बस हमारे साथ होते हैं, हमारे अस्तित्व की तरह. मुट्ठी से रेत फिसल जाने का अहसास भी तब होता है जब ठीक वैसा ही कोई पल अचानक सामने आकर खड़ा हो जाता है | 

और ऐसे में एक छोटी-सी घटना ही हमें अतीत के उन बीहड़ बियाबानों में छोड़ आती  है, जिन्‍हें हम  ज़िन्दगी की उठापटक में सिरे से ही भूल चुके होते हैं। तो ऐसी ही एक घटना या कहें कि दुर्घटना पता नहीं कैसे यादों के कोठार से निकल कर चुपचाप चली आई।  

आज ‘आदि’ आ रहा था, कितने बरस बाद..ना जाने कैसा होगा अब वो ?
आदि मेरे बचपन का दोस्त.....वैसे उसका नाम
''आदित्य'' है...लेकिन प्यार से हम सब उसे आदि बुलाते हैं| हमारी पैदाइश से भी पहले की मित्रता है दोनों परिवारों की. पापा ने बताया कि उसके मामा की बेटी कि शादी है  वो लोग    हमें शादी का निमंत्रण देते हुए बनारस निकल रहे थे. शादी बनारस से होनी थी और यहाँ से भी कुछ ख़रीददारी करनी थी.  उनके आने से बड़ी रौनक थी घर में. कितनी भूली बिसरी पुरानी यादों के साथ  आए थे वो लोग. रह रह कर किसी न किसी बीती पुरानी बात का ज़िक्र हो ही जाता. अरे! वो याद हैं आपको...वो जो शिव जी का मंदिर था न....शायद भूल गयीं हों आप....इस तरह के वाक्यों से बातों की शुरुआत  हो रही थी... और थोड़ी ही देर बाद सब अपने हमउम्र लोगों के साथ बातचीत में मशगूल हो गए...आंटी मम्मी के साथ, अंकल पापाजी के साथ, बच्चे आपस में, और मैं और आदि आपस में  बीते दिनों की बातों में मसरूफ हो गए. मैं आदि से अपने स्कूल के बाक़ी दोस्तों और टीचर्स के बारे में पूछ रही थी. कौन कौन कहाँ रहता है..क्या जॉब करने लगा है..किसकी किसकी शादी हो गई. किसके कितने बच्चे हैं वगैरह..वगैरह..

‘’आप थोड़ी सी सेहतमंद  हो गईं हैं ‘’, बातों बातों में उसने कहा  
‘’और तुम बिलकुल वैसे ही हो ‘’, मैंने कहा. वो मुस्कुराया.
‘’और ये बालों का स्टाइल भी चेन्ज किया ना ‘’,- उसने पूछा.
‘’हूँ..’’, मैंने हाँ में गर्दन हिलाई.  
‘’और तुमने ये हाथों में इतनी अंगूठियाँ क्यूँ पहन रखीं हैं ? और ये स्फटिक की माला और रुद्राक्ष की भी ?‘’ मैंने पूछा.
‘’हाँ!  मम्मी चाहतीं हैं मैं  पहनूं’’, उसने कहा.
‘’हम्म्म...अब लग रहे हो पूरे पंडित जी...पंडित आदित्य नारायण पाण्डेय’’, मैंने कहा.
जोर से ठहाका लगाया उसने.
‘’आपकी आँखें और मुस्कान बिलकुल वैसी ही हैं’’, उसने कहा.
‘’तुम्हारी भी’’, मैंने कहा.
हम दोनों मुस्कुरा रहे थे.
बातों से दिल ही नहीं भर रहा था. नहाकर तैयार होने और नाश्ता करने में ही ग्यारह बज चुके थे. आदि के दोस्त की दुकान थी जहाँ से कपड़े ख़रीदे जाने थे.

कपड़े खरीदते वक़्त मैंने कहा आदि मैं मोनी  के लिए मैं पसंद करती हूँटुकू के लिए तुम पसंद करो. मोनी आदि की प्यारी सी बेटी है. और टुकू मेरा बेटा. हम कपड़े पसंद करने लगे तो दुकानदार ने मेरी तरफ इशारा कर आदि से कहा - आदि भाभी जी की पसंद बहुत अच्छी है. लेकिन  जब उसने दोबारा ये बात कही तो आदि ने  उससे कहा, देख यार, ये तेरी भाभी ज़रूर है, लेकिन मेरी बीवी नहीं है. यह कहते हुए उसने एक  नज़र मुझ पर भी डाली. मैं भी थोड़ा हड़बड़ा गई थी. दुकानदार अपनी गलती पर शर्मिंदा हुआ और उसने हमें सॉरी भी कहा. आदि ने मेरे लिए पिंक कलर की एक बेहद खूबसूरत सी साडी खरीदी. ये आपके लिए उसने कहा. पिंक यूँ भी शुरू से ही मुझे  पसंद है.
‘’इसकी क्या ज़रुरत थी आदि’’,-मैंने कहा.
‘’अरे! आप तो बहुत बदल गईं ‘’,- उसने कहा.
‘’क्यूँ ,क्यूँ भला ?’’, मैंने पूछा.
‘’गिफ्ट के लिए  मना  कर रहीं हैं तो ज़ाहिर है बदल तो गईं ही हैं’’,  वरना आप तो किसी के लिए खरीदा हुआ गिफ्ट भी खुद रखना चाहती थीं न…कह कर छेड़ा उसने.
हम दोनों ही हंस पड़े.
मैंने उसके लिए टक्सीडो पसंद किया. 
‘’मैं शादी में यही पहनूंगा’’,उसने कहा. 

शॉपिंग करते हुए दोपहर के तीन बज गए थे. अब घर  पहुँच कर  खाना बनाने  और खाने में देर हो जाएगी  ये सोच  कर आदि ने होटल में खाने का प्रस्ताव रखा
फिर हम सब होटल में गए खाना खाने. सब अपनी पसंद की चीज़ें ऑर्डर कर रहे थे. आदि ठीक मेरे सामने वाली चेयर पर बैठा था.बच्चों की फरमाइश पूरी करने के बाद उसने मुझसे पूछा -''आपके लिए पनीर बटर मसाला ऑर्डर कर दूं ?
‘’तुम्हें याद है’’, मैंने हंसकर पूछा ?  
‘’पनीर तो आप किसी भी तरह खा सकतीं हैं ? ‘’,उसने कहा.
‘’वैसे अब मैं भी ‘’, कहकर वो मुस्कुराया.
‘’लेकिन तुम तुम तो नहीं खाते थे ?’’, मैंने कहा.
‘’अब मैं भी खाता हूँ ‘’, - उसने कहा.
सबने अपनी पसंद की आइसक्रीम ऑर्डर की.
‘’आपके लिए टूटी फ्रूटी मंगवाई है’’, -उसने कहा.
‘’अरे! वाह! आदि...तुम्हे तो सब याद है’’,- मैंने कहा.
आइसक्रीम खाने के बाद रानी साहिबा…
'' पान खाना चाहेंगी'' , उसने बात पूरी की.
पान खाते हुए हम सब घर लौट रहे थे.कितनी पुरानी छोटी छोटी बातें याद थीं उसे.
हम सब लोगों ने ख़ूब मज़े किये..सच तो ये है कि पूरा दिन ही बड़ा ख़ुशनुमा बीता.अतीत की यादें जैसे किसी फिल्म की रील की तरह आँखों के आगे चल रहीं  थीं, और हम उसका पूरा लुत्फ़ उठा रहे थे.


लौटते वक़्त आदित्य ने  मम्मी जी  के पाँव छुए. चिढाते हुए मैंने कहा, ‘’मेरे भी छुओ आदि, पूरे दो महीने बड़ी हूँ तुमसे’’,
 ‘’आइये छू लूँ’’, कह कर वो झुका.
‘’आप तो यूँ कह रही हैं जैसे मैंने कभी आपके पाँव  छुए ही न हों’’, कहते हुए बड़ी अजीब नज़रों से मुझे देखा उसने.
‘‘देखो झूठ मत बोलो तुमने कब पैर छुए हैं मेरे’’ मैंने कहा.
‘‘आपको कुछ भी याद नहीं है न ?’’, बेहद उदास स्वर में पूछा उसने.
और फिर आंटी की आवाज़ आई जल्दी करो आदि, अब चलना चाहिए वरना  घर  पहुँचने में रात हो जाएगी. और सबने हवा में हाथ लहराते विदा ली. सालों बाद यूँ सबसे मुलाक़ात चाहे कम वक़्त के लिए ही सही बड़ी आनंददायी रही.

लेकिन वो इक बात जो जाते जाते उसने कही..और उसका उदास चेहरा ज़ेहन में रह रह के आ रहा था. मैं सोच में पड़ गई कि क्यूँ कहा उसने ऐसा ? कब उसने मेरे पाँव छूए होंगे?  होता है कभी यूँ भी कि लोग जाकर भी नहीं जाते... जाते हुए ख़ुद को हमारे भीतर छोड़ जाते हैं. दिनभर साथ बिताए पलों की यादें ज़ेहन में छाई हुई थीं. रात सोते वक़्त बचपन की भूली बिसरी यादों में खो गई मैं.

आदिsss आदिsss रुको आदि...मैं उसके पीछे चिल्लाती हुई दौड़ रही थी, और फिर पकड़ लिया उसे.
मुंह खोलो, जल्दी मुंह खोलो, क्या खा रहे हो... कहती हुई हाथ के अंगूठे और तर्जनी से मैंने उसके दोनों गाल दबा दिए.  औरेंज कैंडी थी, उसके मुंह में. कैंडी मुंह से निकल के होठों पर गई थी. वो उसके मुंह से निकाल कर मैंने खाली और डांटकर कहा- ख़बरदार जो दोबारा अकेले  खाने की हिम्मत भी की समझे. तब शायद पांचवीं कक्षा में पढ़ते थे हमलोग. बचपन में इतनी समझ नहीं होती. कैसी कैसी अजीब हरक़तें हम कर गुज़रते  हैं... बादवक़्त  सोचने पर बड़ा अजीब सा लगता है, कि क्‍यों ऐसा किया होगा.  कैसे ऐसा कर भी पाए.
और एक बार ऐसे ही लड़ाई की वजह तो याद नहीं, लड़ते हुए मैंने उसे ज़मीन पे गिरा दिया था और उसके पेट पर बैठ गाल जोरों से काट लिया था...दांतों के निशान छप गए थे गाल पर. इसी तरह एक बार हम पढने बैठे थे. तब आठवीं कक्षा में थे हम. मैं  राउंडर से खेल रही थी. उसकी नोक अपनी हथेली पे लगा कर गोल घुमा रही थी.
आदि ने टोका, मत कीजिये ऐसा, लग जाएगी.
मैंने कहा, तुम्हारी तरह नाज़ुक नहीं हूँ  समझे?
शायद उसके अहम् को ठेस पहुंची. उसने कहा,  मैं इतना भी नाज़ुक नहीं हूँ.
मैंने कहा, अच्छा, हाथ दिखाओ.
उसने हाथ आगे कर दिए. मैंने राउंडर की नोक उसकी हथेली पर रख कर थोड़ा दबाया. वो मुस्कुरा रहा था.
मैंने पूछा, दर्द हुआ.
नहीं’, उसने कहा.
मैंने थोड़ा सा और जोर से  गड़ाया और पूछा, अब ?
नहीं’ उसने फिर कहा.
अबकी जो ताक़त लगाई मैंने तो राउंडर उसकी हथेली में चुभ गया,खून निकल आया. मैं डर गई थी बुरी तरह से.
ओह! ख़ून निकल आया आदि... मैं लगभग चीख़ ही पड़ी थी.
मेरा रुआंसा मुंह देखकर उसने कहा, खून निकला ज़रूर है, लेकिन पता नहीं क्यूँ  दर्द हीं हो रहा... सच्ची...
आज याद कर रही हूँ तो पाती हूं कि उसने कभी मुझे इस तरह चोट नहीं हुंचाई..हमेशा मुझसे मार खाता था लेकिन कभी शिकायत नहीं करता था.. 

मैं थी भी बड़ी मनमानी करने वाली. मम्मी-पापा की बड़ी लाड़ली बेटी, और बेटी भी क्या बिलकुल बेटा. पापा हमेशा बेटा जी बुलाते थे. आदि और मैं साथ पढ़ते थे. बड़ी गहरी दोस्ती थी हमारी. हमारे घर से लगा हुआ घर था उन लोगों का. मेरा सारा होमवर्क करना आदि का काम था. होमवर्क ही क्यूँ जो भी मैं कहूँ वो सब. वो तो जैसे मेरी ग़ुलामी करने के लिए ही पैदा हुआ था. बस मेरे आगे पीछे घूमना, जी जान से हर वो काम करना जो मैंने कहा है उसे करने के लिए. माँ पापा और आदि की वजह से ही शायद मुझे बदगुमानी थी कि मैं सिर्फ़ प्यार किए जाने के लिए हूँ. जो मैं चाहूँ हमेशा वही होना चाहिए....मुझे भी उसकी आदत-सी थी. वो मेरे टैडी बियर जैसा था. बहुत प्‍यारा, मेरा अपना... मैं उसे डांटूं, मारूं, खेलूं ... जो जी चाहे करूं... वो प्रतिकार नहीं करता था. उसके साथ मैं बहुत कम्‍फर्टेबल थी, जैसे ख़ुद के साथ. मैं अपनी सारी गलतियाँ उसके सर  मढ़ती, और वो हमेशा मेरी ग़लतियों के लिए डांट भी खाता मगर उफ्फ्फ़ भी न करता. वो क्यूँ ऐसा करता था मैंने कभी नहीं सोचा...उस रात सोचा...कि पहले क्यूँ नही सोचा मैंने.... और सोचते हुए मन भीगने-सा लगा था....


क्लास के लड़कों की शिकायतें मैं उससे किया करती थी. वो तो जैसे मेरा बॉडीगार्ड था. एक बार मुझे याद है अनिल ने मुझे लव लैटर दिया था. उस ज़माने में ये कितनी बड़ी बात होती थी. टीचर को बताऊँ तो सबको पता चल जाएगा और कितनी बेइज्ज़ती होगी सोचकर बहुत परेशान थी. कितनी घबराई थी मैं. क्या करूँ इसका अब. बिना पढ़े ही आदि को दे दी. उसने एक गंभीर दृष्टि मुझपे डाली और कहा- फ़िक्र कीजिये . और उसी दिन शाम को आदि और उसके दोस्तों ने मिलकर अनिल की ख़ूब पिटाई की और अगले दिन स्कूल में उससे माफ़ी मंगवाई. कितनी यादें उन दिनों की एक एक कर रात भर याद आती रहीं.

हम कंबाइंड स्टडी करते थे ट्यूशन टीचर भी एक ही थे . और वो भी बेहद सीधे सादे. पढ़ते वक़्त अगर मैं कभी शैतानी करूँ भी तो भी डांटते नहीं थे. बस इतना ही कहते...अच्छा अब हँसना बंद करो और इधर  ध्यान  दो. वो सात बजे आते थे, नौ बजे तक हमें पढ़ाते थे... फिर परीक्षाएं नज़दीक होने की वजह से  खाना खाकर रात साढ़े ग्‍यारह-बारह बजे तक हम लोग पढ़ते थे.

         हम ग्यारहवीं में पढ़ रहे थे, परीक्षाओं का मौसम था. बोर्ड परीक्षा का बड़ा टेंशन था. परीक्षाओं का मौसम ...यानी ऋतुराज वसंत के आगमन का मौसम. ऋतुराज वसंत आज भी मेरे लिए ल्‍लास और आनंद के साथ-साथ एक अजीब सी दहशत साथ लेकर आते हैं. पत्तों की खडखडाहट के साथ ही पेट में कुछ गोल गोल सा हो जाता है. धडकनें  तेज़  चलने लगतीं हैं आज भी, जब ये मौसम दोहराता है ख़ुद को. परीक्षाओं के समय पता नहीं इतनी नींद क्यूँ आती है. पढाई के लिए सुबह उठने की तुलना में रात में जागना फिर भी आसान ही था. लेकिन  रात ग्यारह बजते  बजते ही मेरा ऊंघना शुरू हो जाता था मेरा . जम्हाई पे जम्हाई आती... नींद गाने के लिए बड़े उपाय किया करती मैं. आदि से कहती- रानी साहिबा के लिए चाय पेश की जाए. चाय या कॉफ़ी के  साथ कभी  सामने गार्डन में टहलती.कभी कहती - आदि अब एक गाना सुन लेते हैं फिर पढ़ेंगे. आँखों में पानी के छींटे मारती...लेकिन नींद जाने का नाम ही लेतीफिर उसे दया जाती मुझ पर तो कहता जाइए सो जाइए अब कल पढ़ेंगे. मैं कहती तुम अकेले पढ़ना, वरना मम्मी मुझे डांटेगी समझे. वो हाँ में सर हिलाता  और घर चला जाता.

ऐसी ही एक रात मैं नींद से बेहाल थी. मैंने कहा सुनो आदि अब मैं देखकर नहीं पढ़ सकती, तुम ज़ोर ज़ोर से बोलो  मैं सुनकर याद करूंगी. उसका बोलना मेरे लिए जैसे लोरी. नींद भगाने के लिए मुंह धोकर आ गई और आदि को चाय बनाने को कहा. वो हमेशा की तरह चला गया चाय बनाने. घर मेरा लेकिन चाय कॉफ़ी बनाना उसका काम था. जब वो लौटा तब तक मैं किताब पर सिर पटक कर सो चुकी थी. उठिए उठिए चाय आ गई, उसकी आवाज़ से मेरी नींद खुली. लाल लाल आँखों में जैसे कंकड़ से गड़ रहे थे. मैं नींद से बेहाल थी. मेरा ये हाल देख कर उस दिन पता नही उसे क्या हुआ, वो अचानक उठकर क़रीब आया और धीरे-से मेरी बांयी गाल पर एक चुम्बन जड़ दिया. जैसे बिजली का एक करेंट सा लगा और दिमाग सुन्न हो गया. सांसें जैसे रूकती-रूकती सी गीं….और फिर धड़कने बेतरतीब हो गईं.. कुछ देर के लिए सबकुछ स्थिर हो गया. गहरा सन्नाटा पसरा था...रात सांय सांय कर रही थी. धड़कनों का शोर बहुत तेज़ सुने दे रहा था…शोर जब कुछ  कम हुआ , मैं सोफ़े से उठी और सीधे पलंग पे औंधे मुंह धड़ाम से जा गिरी, और सिर्फ़ एक ख़याल रह गया कि बाप रे,  ये तो बड़ा ही चरित्रहीन है. ये कतई अच्‍छा इंसान नहीं है. ऐसी अप्रत्‍याशित हरकत पर इस उम्र में सभी लड़कियां शायद इसी तरह क्षुब्‍ध होती हैं। मैं अवाक् और हतप्रभ अपने बिस्‍तर पर पड़ी  रही...लगभग आधे घंटे बाद उसकी  आवाज़ आई...मैं जा रहा हूँ दरवाज़ा बंद कर लीजियेगा.

ज़िन्दगी में पहली बार ऐसा कुछ घटा था ,जो किसी से भी कहा नहीं जा सकता था. मम्मी-पापाजी ने जिस तरह से  पाला  था मुझे , मैं हर बात बेझिझक  उनसे बता सकती थी, लेकिन ये एक ऐसी बात हुई कि जाने क्यूँ लगा कि ये बात किसी से भी बताई नहीं जा सकती. ऐसी बातों को मन छुपाए, इनके  बोझ तले दबा बहुत अकेला हो जाता है मासूम दिल उस उम्र में. एक अजीब अहसास से गुज़र रही थी मैं...सहमा हुआ सा मन..हर वक़्त घबराहट..इक बेचैनी सी..किससे कहूँ..क्या, कैसे कहूँ....किसी से कुछ कह पाने की वजह से  ख़ुद को बहुत अकेला महसूस कर रही थी. मासूम दिल पर बड़ा बुरा असर होता है ऐसी बातों का. मैं तो दिल की हर बात आदि को बताती थी. अब जब उसने ही ऐसा कर दिया तो किससे  क्या कहूँ, समझ नहीं आ रहा था. अजीब वहशत सी होने लगी थी . अगली शाम को वो पढ़ने नहीं आया. दूसरे दिन डांट डपटकर आंटी ने उसे भेजा. मैं डरके उससे छुपती फिरी, पलंग के नीचे, बाथरूम में. एक दिन तो निकल गया अगले दिन मम्मी जी ने उसके सामने ही  मेरी गाल पे तमाचा जड़ दिया, ये कहते हुए कि पढ़ने में मन नहीं लगता तुम्हारा, चलो पढ़ने बैठो. आदि को देखो कितना मन लगाकर पढता है. मैं पढ़ने बैठ तो गई लेकिन  ट्यूशन टीचर की कोई भी बात समझ नहीं आ रही थी. दिमाग में सिर्फ कल रात की बात चल रही थी. टीचर चले गए और जल्दी ही आदि भी. कुछ राहत महसूस हुई. लेकिन, अगले दिन फिर वही शाम. लगता था ये शाम क्यूँ होती है आख़िर. तीन दिन हो गए थे  एक लफ्ज़ भी बात नहीं कि थी हमने. ये पहली बार था जब इस तरह हमारी बात बंद हो गई थी. हम चुपचाप किताबें घूरते रहते थे. आते जाते बड़ों की हिदायत मिलती रहतीं परीक्षाएं नज़दीक हैं मन लगाकर पढो. आदि का तो नहीं पता,  लेकिन मेरे लिए बहुत बोझिल था. मैं सिर्फ़ यह सोच रही थी कि कैसे छुटकारा पाऊँ इससे. जिस पर इतनी हुकूमत करती थी, गुलाम से ज़्यादा कुछ नहीं समझती थी, उससे कितना डर लगने लगा था मुझे. अचानक कितना अजनबी सा लगने लगा था वो.

रात के लगभग साढ़े ग्यारह बजे  रहे होंगे. मेरी आँखों में नींद का नामोनिशान न था. कमरे में बिलकुल चुप्पी थी, अचानक वो सोफ़े से उठा. मेरा दिल ज़ोर से धड़का, मैं डर कर खड़ी हो गई. वो मेरी तरफ एक क़दम आया, मैं दो क़दम पीछे गई और दीवार से जा लगी. बहुत ज्‍यादा डरी हुई थी. सोच रही थी, हे भगवान्, अब क्या करेगा ये... क्‍या फिर वैसा ही कुछ...? एक सैकंड में दिमाग में कितनी सारी बातें आ जाती हैं... डर के कारण जैसे जान निकली जा रही थी. वो और पास आया...रफ़्तार तेज़ हुई धड़कनों की, आवाज़ घुट के रह  गई थी...  धडकनें  थमतीं  कि मैंने अपने पांवों पर उसके हाथों का स्पर्श  महसूस किया. वो मेरे पैरों को पकड़े रो रहा था. रोता हुआ कह रहा था, मुझसे ग़लती हो गई, मुझे माफ़ कर दीजिये प्लीज़. आप मुझसे बात नहीं करेंगी तो मैं मर जाऊँगा. आप नहीं बोलेंगी तो मैं जी नहीं पाऊंगा. मुझे नहीं पता ये कैसे हुआ मुझसे. बस एक बार माफ़ कर दीजिये प्लीज़. अब मैं कभी ऐसा नहीं करूंगा ...आप जो चाहें सजा दें, लेकिन प्लीज़ बोलिए मुझसे. बात कीजिये मुझसे....
वो रोता जा रहा था और बोलता जा रहा था.... और अचानक मैंने महसूस किया  कि  जैसे मेरा सारा डर गायब सा हो गया था.. तीन दिनों से कितना भार था मन पर…एक ही पल में जैसे  जैसे सारा बोझ उतर गया . इक अजीब सी राहत महसूस की दिल ने. सबकुछ पहले जैसा लगने लगा. मुझे लगा ये जो पैरों पर गिरकर रो रहा है, ये तो वही आदि है. इससे डरने की कोई ज़रुरत नहीं. ये बुरा नहीं है ये तो दोस्‍त आदि ही है...और फिर दिल से सारा डर निकल गया. मैंने  लगभग डांटते हुए कहा ठीक है ठीक है...अब रोना बंद करो और घर जाओ...

एक शांत गहरी कुछ उदास सी सांस लेकर यादों के गलियारे से वापस लौटी मैं.
ओह! तो इसलिए आज उसने कहा कि वो पहले भी मेरे पाँव छू चुका है...
सब याद करते हुए मन बड़ा अजीब सा हो गया था. इतने सालों बाद भी उसे ये बात याद रही. ओह! मैं भी कितनी खुदगर्ज़ थी. उन दिनों में कभी...एक बार भी उसकी तकलीफ़ के बारे में नहीं सोचा. गलती हो जाने का  का अहसास... मुझे हमेशा के लिए खो देने का डर.. उफ्फ्फ..कितने दर्द से गुज़रा होगा वो. और आज भी ये बात कहते हुए उदासी उसकी छुप नहीं सकी थी... और आज तक हर बात इतनी शिद्दत से अपनी यादों में संजो कर रखी हैं उसने.... ये सब सोचते-सोचते रात के बारह बजने लगे थे...आज फिर आँखों में नींद का नामोनिशान था.  सांस उस तरह रही थी जैसे जी भर रो चुकने के बाद आती है. ज़्यादा देर तक सोचने की वजह से शायद.कबारगी यूँ लगा कि जैसे किसी बच्चे  को कोई अनमोल चीज़ मिली और खो भी गई.. और उस मासूम को इसका इल्म तक हुआ. जीवन में प्रेम भी कितने अद्भुत ढंग से प्रगट होता है... कभी भी...कहीं भी. यही सब सोचते सोचते पता नहीं फिर   कब नींद आ गई.

22 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर.....मै आपके इस जज्बात को सम्मान करता हू "जब ज़िन्दगी के मायने नहीं पता होते, तब भी कोई ज़िन्दगी का हिस्सा होता है..ज़िन्दगी होता" यह लाईन मुझे बहुत प्रभावित किया....

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    1. जी...हेमंत जी...होता है यूँ भी...
      शुक्रिया...आपको अच्छा लगा...

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  2. अकादमिक दृष्टि से इस अफ़साने पर तुरत-फुरत प्रतिक्रिया संभव ही नहीं है.
    इस कहानी का हर पाठक कहानी को अपने लिए रचा गया मानने की भूल कर बैठेगा.
    अफसाना पढ़ा कर हरेक को जीता जा सकता है.
    इसे पढ़कर हर कोई हार जाएगा. ( पुरुषोचित दर्प कहीं तो रुकेगा )

    हर पाठक अफ़साने के नायक 'आदि' से या तो ईर्षा करने लगेगा अथवा स्वयं में उस 'आदि' को खोज़ लेगा.
    शायद कल-परसों ही मैंने किसी पोस्ट पर लिखा था कि मझोले नगरों से निकलकर महानगरों की और आये सभी जन कहीं न कहीं, जो छूट गया उसे तलाशते हैं. वो न भी मिले तो उसके बारे में सोचना ही उन्हें सुख से भर देता है.

    ख़ैर ......... रचना में, शब्दों का इससे अधिक प्रभाव, अपना सम्पूर्ण प्रभाव ही खो देगाप्रथम प्रयास में ही गुज़िश्ता घटनाओं को आधार बनाकर रची गयी ख़ूबसूरत कहानी, ( जो पढ़ते समय कहीं भी काल्पनिक नहीं लगी ) के लिए बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें.

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    1. वक़्त निकाल कर आपने इतनी शिद्दत से कहानी को पढ़ा...और पढ़ते हुए जो महसूस किया उसे कितनी ख़ूबसूरती से कहा...आपका अपनी बात कहने का ढंग बेहद प्रभावशाली है...
      और ये जो कहा आपने कि..अफसाना पढ़ा कर हरेक को जीता जा सकता है.
      इसे पढ़कर हर कोई हार जाएगा. ( पुरुषोचित दर्प कहीं तो रुकेगा )
      हर पाठक अफ़साने के नायक 'आदि' से या तो ईर्षा करने लगेगा अथवा स्वयं में उस 'आदि' को खोज़ लेगा....इस टिपण्णी से तो लिखने का प्रयास सार्थक हुआ...
      और सच ही कहा आपने वीरेन्द्र जी...जो छूट गया तलाशते हुए वो न भी मिले तो उसे सोचना ही बहुत सुखद होता है...
      आपकी प्रतिक्रया ने बहुत बहुत मान बढ़ाया है....कहानी अच्छी लगी आपको...ह्रदय से आभार आपका...सदैव स्नेह बनाए रखियेगा..:):)

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  3. रोचक और जीवंत कहानी .. भावनात्क रूप से अमीर है ये कहानी .. हर द्रश्य सीधा दिल पे असर करता हुआ एक असहज सवाल को जन्म देता है.. बहुत खूब..

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    1. असहज सवाल नीरज जी...?
      आपने पूछा होता तो हम अपनी प्रतिक्रिया दे पाते...
      कहानी आपको अच्छी लगी...आपने मन से पढ़ी...बहुत आभार ..:)

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  4. वाह क्या कहानी लिखी है अनीता जी आपने .... साहित्यिक तामझाम से जरा परहेज़ ..एक कोई विज्ञापन याद आ रहा है मुझे "सीधी बात नो बकवास " भाषा भी वही सीधे दिल से निकली और सीधे दिल को छूती हुई ..और स्म्रतियों के चित्रण में तो आप वाकई लाज़बाब साबित हुए हो देखिये न .....

    "मुझे भी उसकी आदत-सी थी. वो मेरे टैडी बियर जैसा था. बहुत प्‍यारा, मेरा अपना... मैं उसे डांटूं, मारूं, खेलूं ... जो जी चाहे करूं... वो प्रतिकार नहीं करता था. उसके साथ मैं बहुत कम्‍फर्टेबल थी, जैसे ख़ुद के साथ. मैं अपनी सारी गलतियाँ उसके सर मढ़ती, और वो हमेशा मेरी ग़लतियों के लिए डांट भी खाता मगर उफ्फ्फ़ भी न करता. वो क्यूँ ऐसा करता था मैंने कभी नहीं सोचा...उस रात सोचा...कि पहले क्यूँ नही सोचा मैंने.... और सोचते हुए मन भीगने-सा लगा था...."

    बहुत खूबसूरत रचना साहित्य में एक नयी संभावना का बीजारोपण करती हुई ! बधाई स्वीकारिये मेरी !!

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    1. इतनी रूचि लेकर कहानी पढ़ने का...और इस तरह उत्साहवर्धन करने का...बहुत शुक्रिया आनंद जी...हम आभारी हैं आपके...:)

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  5. एक पल की छोटी घटना... कभी-कभी बड़ी बन जाती है... स्मृतियों को उढ़ेलकर उसे कहनो का ये अंदाज़ अच्छा लगा....

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    1. इतने मन से पढ़ी आपने..कहानी आपको पसंद आई....बहुत बहुत शुक्रिया आपका आकाश जी..:)

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  6. Ek behad nishchhal pyari si kahani with a wonderful sponetenious expression.

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    1. वक़्त लगाकर आपने हमारा हौसला बढ़ाने के लिए ये कहानी पढ़ी...लफ्ज़ नहीं हमारे पास...क्या कहें...स्नेह्धन्य हैं आपके...दिल से आभारी हैं..:)

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  7. E nishchhal pyari si kahani with a wonderful sponetenious expression.

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    1. हमारे पहले प्रयास को इस तरह सराहा आपने....हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया..:)

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  8. बाल्यकाल से किशोर अवस्था के निश्छल प्यार को जिस खूबसूरती से शब्दों में ढाला है... आप को बधाई ! कल्पना तो यह कहीं से नहीं लगती बल्कि एक सच्चा संवाद है जिसमे पाठक सवय्म्ब आदि में अपना प्रतिबिम्ब महसूस करता है! सरल भाषा और निर्मल प्रेम मन को अभूतपूरव अलग तरह का अनुभव देता है और मन को पूरी तरह भिगो कर, गीली मिटटी सी खुशबू से सरोबार कर देता है..एक बार फिर से बधाई!

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  9. बाल्यकाल से किशोरावस्था.....पवित्रतम प्रेम की उम्र....
    कहानी को इतनी शिद्दत से महसूस कर पढ़ने का बहुत शुक्रिया अजय जी..:)
    आपके दिल को अच्छी लगी आभारी हैं..:)

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  10. बाल्यकाल से किशोरावस्था.....पवित्रतम प्रेम की उम्र....
    कहानी को इतनी शिद्दत से महसूस कर पढ़ने का बहुत शुक्रिया अजय जी..:)
    आपके दिल को अच्छी लगी आभारी हैं..:)

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  11. shital nirmal komal ahsaas piroye hai kahani kam hakeekat lagi

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    1. कहानी आपके दिल को अच्छी लगी....आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार!

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  12. बहुत दिन बाद कोई अच्छी कहानी पढ़ी. अभिभूत हूँ. इसलिए कि यह कहानी आज के दौर में लिखी गयी, और इतनी सात्विक है. निर्मल मन और प्यार की ऊंचाइयों का संस्पर्श है इसमे. वरना इधर की अनेक लेखिकाएं इसी कहानी का ट्रीटमेंट इतना अश्लील कर देती की क्या कहूं. तुमने नैतिकता का ध्यान रखा, यह बड़ी बात है. ऐसी कहानियाँ व्यक्ति को बड़ा बनाती हैं. कहानी की सार्थकता भी तभी है, जब वो कुछ बेहतर दे. कथा रस भी हो, और इंसानियत का पैगाम भी हो. जीवन मूल्य भी हों. प्यार की अंतर्धारा के साथ ख़त्म होती यह कहानी हमें अतीत की मधुर स्मृति-लोक (नास्टेल्जिया) तक ले जाती है. इसी तरह का सृजन करते हुए साहित्य को समृद्ध करना. मेरी शुभकामनाये.

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    1. आपने इतने मन से कहानी पढ़ी और अपनी प्रतिक्रिया लिखी...गिरीश जी..
      कहानी आपको पसंद आई....आपकी सुन्दर समीक्षा ने मान और हौसला दोनों बढ़ाया है...बहुत आभारी हैं आपके..

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  13. इतनी-इतनी सुंदर रीति से भावनाओं को पन्ने में उकेरा है आपने कि, जज़्बात की कुछ बूंदें आँखों से टपक पड़ी। आज बहुत दिनो बाद मुझे मेरी एक "फ्रेंडनी" की याद आ गयी। बिलकुल ऐसे ही हम लोग भी पढ़ते, हर त्योहार में हाथों से बनाए ग्रीटिंग कार्ड एक दूसरे को देना, वो लुक्का-छुप्पी में चीटिंग करना ..... आह! मन में बाईस्कोप कि तरह तस्वीरें बनती हैं। मेरी इस फ्रेंड की अब शादी हो गयी है। एक बार वो आंटी के साथ घर आई थी, मैं शर्म के मारे कुछ भी बात नहीं कर पाया था ... आज थोड़ा अफसोस हो रहा है।
    खैर... आपके शब्दों ने वो बचपन का एक ज़माना याद दिला दिया, जब मन निर्मल पानी की तरह साफ और सच्चा था।
    बहुत बहुत बधाई :) :) :)

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